सुरेश सेठपंजाब के शहरों से लेकर दूर गांवों और कस्बों तक घूम आता हूं। शहरों में चुनाव प्रचार की धमक शुरू हो गई है, लेकिन गांवों से लेकर शहरों तक कहीं ढोल की धमक नहीं सुनी। चाहे विदाई हमने विदा कर दी। शहरों के विरासती अखाड़े अब मस फूटते नौजवान मल्लों की हुंकार से नहीं गूंजते। उधर, गांवों में, कस्बों में, भांगड़ा नाचते पंजाबियों के कदमों की धमक मंद पड़ गई है। खेतों में फसलें लहलहा रही हैं। मौसम की बेवफाई का संताप भी झेल रही हैं। मौसम बेमौसम हो जाता है। फसलें फिर बेवफाई से सहमने लगती हैं। किसानों के चेहरे उतर जाते हैं। कहां गए पंजाब के मेले-ठेले? यहां-वहां लगने वाली पशु मंडियां?अब तो जैसे शहरों ही नहीं, गांवों तक में एक अजब-सी भागदौड़ और आपाधापी है। गांवों की छतों पर भी डिश एंटिना नजर आने लगे हैं लेकिन अब कोई गुरशरण सिंह रात को अपनी नाटक मंडली के साथ बैलगाडिय़ों को अस्थाई मंच बना नुक्कड़ नाटक नहीं खेलता। वक्त बदल गया। जगराते, माता की चौकियां और शोभायात्राएं तो बदलते शहरों का शृंगार बन गईं।पटियाला से गुजर जाओ, कहीं टिप्परी नाचते नौजवान नजर नहीं आते। हवाओं में ‘जय श्रीरामÓ की धमक गूंजती है। लेकिन युवा पीढ़ी इस धमक से उत्तेजित नहीं, उदास नजर आती है क्योंकि उनके लिए रोजगार दिलाऊ दफ्तरों की खिड़कियां खटखटाने पर भी नहीं खुलतीं। बेरोजगार शिक्षित नौजवानों के हाथ में लार्ड मैकाले की शिक्षा प्रणाली से मिली हुई डिग्रियां, उनकी बैसाखियां नहीं बन पातीं। महानगरों में कॉरपोरेट सेक्टर की धूम है। पटियाला से अमृतसर तक घूम जाइए। यहां-वहां मॉल-प्लाजाओं ने सिर उठा लिए। लेकिन पटियाला के परांदा बाजार और जुत्ती बाजार क्यों उखड़े-उखड़े नजर आते हैं? बड़े-बड़े व्यावसायिक घरानों ने अपनी स्वचालित मशीनों की सहायता से आर्थिक विकास दर को बढ़ा दिया।पुराने सिनेमाघर खंडहरों में तबदील हो गए। जमाना सिंगल स्क्रीन का नहीं, मल्टीपल स्क्रीन वाले पी.वी.आर. का आ गया। लोग खर्चीली टिकटों के साथ 200 रुपये का पापकार्न खाते हुए आधुनिक हो रहे हैं। सड़कों पर भ_ी वालियां अब मकई के दाने भूनती नजर नहीं आतीं। कोई शिव कुमार बटालवी नहीं कहता, ‘भ_ी वालिए मेरी दर्द दा परागा भुन्न दे।Ó पंजाबियत के नारे जिंदा हो रहे हैं। युग संस्कृति का चेहरा उधड़ रहा है। गरीब और गरीब हो गए। डिग्रीधारी को और व्यर्थ कर दिया गया। उन्हें भला मेले-ठेलों में जाकर दंगल की हुंकार लगाने की फुर्सत कहां? बलवंत सिंह और जगदीश चंद्र के उपन्यासों की कथा भूमि गांवों में नजर नहीं आती। अधिक से अधिक वहां मेला लगता है तो परिवार नियोजन मेले जहां ‘दो बूंद जि़ंदगी कीÓ जैसे बोर्ड चमकते हैं। महंगाई और भ्रष्टाचार युग बदलने के नारों के बावजूद अभी भी दैनिक जीवन में दनदनाते हैं।पब्लिक स्कूल कल्चर की जगह सरकारी स्कूलों ने नहीं ली। जबकि पिछले दिनों वायदा किया गया था कि सरकारी स्कूलों में छात्रों के दाखिले बढ़ाए जाएंगे और पब्लिक स्कूलों की दुकानदारी के पंख कतरने का प्रयास होगा। लेकिन पंजाब में न नई शिक्षा नीति, न आपरेशन ब्लैक बोर्ड ने कोई नया माहौल सृजित किया है और न ही शिक्षा का संवैधानिक अधिकार। चाहे पंजाब ने यह पहले स्वीकार किया था लेकिन यह निर्धन छात्रों के द्वार तक नहीं जा सका।देशभर के नौजवानों में बेरोजगारी की दर बढ़ती जा रही है। स्टेट ऑफ वर्किंग इंडिया-2018 की बेरोजगारी रिपोर्ट आ गई है, जो इंटरव्यू के लिए दर-दर भटकते नौजवानों को बताती है कि कई सालों तक बेरोजगारी दर 2 से 3 प्रतिशत के आसपास रहने के बाद साल 2015 में 5 प्रतिशत तक पहुंच गई और देश के युवक जो देश की कुल आबादी का आधा भाग हैं, उनमें बेरोजगारी की दर 16 प्रतिशत तक पहुंच चुकी है। याद रखा जाए कि जी.डी.पी. में दस प्रतिशत की वृद्धि हो जाए तो रोजगार में एक प्रतिशत से भी कम की वृद्धि होती है। अंतिम आंकड़े सामने आ रहे हैं। पिछले तीन वर्ष से नये युग के दावों के बावजूद देश की विकास दर 7 प्रतिशत तक ठिठकी हुई है। इसका अर्थ कि कुल रोजगार में एक प्रतिशत भी वृद्धि नहीं हुई।कई दूसरे जानकार भी बताते हैं कि देश में बेरोजगारी दर पिछले दो दशक में सबसे ऊंचे स्तर पर पहुंच गई लेकिन आज की सरकार इस ऊंचे स्तर को स्वरोजगार के नारों से झुठलाती है। मुद्रा योजना की सार्थकता की पुन:-पुन: घोषणा होती है और काम मांगते नौजवान के हाथों में उतने पैसे भी नहीं बंट पाते, जितने बजट में आवंटित हुए थे। शहर-शहर घूमता हूं, नौजवानों की आंखों में उदासी के साये हैं। अपने छात्रों को सब्जी की दुकानें और रिक्शा चलाते हुए देखता हूं। सड़कों के किनारों पर होली के अवसर पर अब होलिका नहीं जलती। वे अब क्या अपनी डिग्रियों की होली जलाएंगे? नये जीवन के उत्साह से छूटते जा रहे हैं नौजवान। सांस्कृतिक चेतना पर भूख की चेतना हावी हो रही है।रोजगार मुहैया करवाने का जिक्र अभी भी रोजगार नीतियों की बंद फाइलों का कैदी है। अजब तर्क है कि घुसपैठियों के कारण स्थानीय लोगों का रोजगार छिना, इसलिए घुसपैठ रोकेंगे। शहरों में पंजाब से लेकर जम्मू तक अजनबी लोगों की बस्तियां उभर आई हैं। इनमें प्रवासी श्रमिकों से लेकर रोहिंग्या मजदूर तक हैं। संस्कृति के नाम पर फैशन शो होते हैं और लोकगीतों के नाम पर ऐसी बेढब, बेतुकी अश्लीलता परोसी जा रही है कि कला-संस्कृति के पहरूए उसके विरुद्ध आवाज उठाते हुए भी उससे लोहा लेने का प्रयास नहीं करते, केवल अकादमिक निंदा के प्रस्ताव पास करते हैं।देश और पंजाब के नौजवानों में राष्ट्रवाद और सेना के पराक्रम पर लोगों का ध्यान केंद्रित किया जा रहा है लेकिन साथ ही इसमें से रोजगार का रास्ता सार्वजनिक और निजी क्षेत्र की भागीदारी से निकाला जाता है। देश की नई सरकार के चाहवान कहते हैं कि अर्थव्यवस्था को रफ्तार देने के लिए 22 सेक्टरों की पहचान करेंगे, जिससे रोजगार बढ़ेगा। लेकिन असल सेक्टर तो एक ही है, जिसके अधीन पंजाब के गांवों और कस्बों में लघु और कुटीर उद्योगों के द्वारा दरियां बुनी जाती थीं, बर्तन बनाए जाते थे। गन्नों से गुड़ गढ़ा जाता था, जिसे चीनी से अधिक सेहतमंद बताया जाता था।कहां गए रसों के बेलने, कहां गए आमों के बाग, कहां गए ग्रामीण समाज से उभरते हुए लघु और कुटीर उद्योगों का सशक्त स्वर? धड़धड़ाती हुई मशीनों की आवाज में सम्पन्न वर्ग की पौ-बारह पंजाब के सभी शहरों की बहुमंजिला इमारतों में नजर आती है लेकिन बटाला जिले के गोबिंदगढ़ तक के छोटे उद्योग और कुटीर समूह क्यों निष्प्राण पड़े हैं और उसके साथ ही निष्प्राण पड़ी है पंजाब की सांस्कृतिक चेतना जो इस बदलते समय के साथ करवट बदलने के लिए समय के मसीहाओं से अपनी पुन: प्राण प्रतिष्ठा मांग रही है। आइए, इसे प्रतिष्ठित करें।००