@आशीष सागर दीक्षित, बाँदा।
“वक्त बदला और हम भी बदल गए, सियासत के दांवपेंच ही ऐसे चल गए। अपनी तो विरासत कुछ बना न सके, उनकी निशानियां हथियाने को बखूबी मचल गए।“
- बहन मनु / झांसी की रानी लक्ष्मीबाई से राखी के रिश्तों को बाँदा नवाब अली बहादुर ने बखूबी निभाया।
- सोशल मीडिया पर बाँदा नवाब की चौथी पीढ़ी के वारिस नवाब शादाब अली बहादुर पेशवा अपने दादा को इस आबोअदब से याद कर रहें है।
भोपाल/बाँदा। आज रक्षाबंधन है। बहन से भाई के स्नेह, अपनत्व और अटूट बंधन का पर्व। एक धागा जो रेशम की डोरी से भाई की कलाई पर संसार बांधने की हिम्मत रखता है। वह दुनिया के हर सहोदर रिश्तें पर सबसे ज्यादा खूबसूरत है। ऐसे मे बाँदा नवाब और झांसी की रानी का भाई-बहन प्रेम और रिश्ता सबको सनद रखना चाहिए। आज यह समरसता और सौहार्द की नजीर है तो बहन के लिए प्राण न्यौछावर करने वाले दिलेर भाई की दास्तान भी है।

बाँदा नवाब के पोते नवाब शादाब अली बहादुर पेशवा ( बाँदा नवाब का बाजीराव पेशवा व मस्तानी से भी नजदीकी रिश्ता था।) जो अपने बुजुर्गों के ऐतिहासिक कालखंड पर नाज करते है। वह बेलौस होकर लिखतें है कि…
रक्षाबंधन के इस पवित्र त्यौहार पर मुझे हर वर्ष अपने पर दादा बाँदा नवाब और 1857 मे आजादी की ज्वाला जलाने वाली क्रांतिकारी श्रद्धेय झांसी की रानी लक्ष्मीबाई उर्फ मनु की याद आती है। वे बताते है कि राखी का मान उनके दादा ने जिस शिद्दत से निभाया वह आज युवाओं को प्रेरणा दे सकता है। राखी मे धर्म, मजहब की दीवार तोड़कर झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने अपने मुंहबोले बाँदा नवाब को राखी बांधी थी। उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत से दो-हाथ करने को अपने भाई की कलाई मे रक्षा सूत्र / राखी बांधकर अपनी सुरक्षा का वचन लिया था। उन्होंने बताया कि इतिहास गवाह है रानी लक्ष्मी बाई ने अपने भाई बाँदा नवाब को राखी के साथ खत लिखकर फिरंगियों के खिलाफ लड़ने के लिए मदद मांगी थी। वहीं नवाब बांदा ने अपनी बहन की आबरू बचाने के लिए बिना कुछ सोचे उस दौर मे 10 हज़ार जांबाज फौज लेकर झांसी के लिए रवाना हो गए थे। तब रास्ते मे उन्हें अंग्रेज़ी फौज से मुकाबला करना पड़ा। उन्होंने ब्रिटिश सरकार के गोरिल्ला जवानों को हराया। उन्हें झांसी पहुंचता देखकर बहन रानी लक्ष्मी बाई की जान मे नई ऊर्जा का संचार हुआ। मनु ने सबसे कहा मेरा भाई मदद को आ गया है। उन्होंने फिरंगी सेना से घिरता देखकर झांसी दुर्ग से छलांग लगाई फिर वहां से वे ग्वालियर मदद लेने के लिए रवाना हुए। लेकिन ग्वालियर के महाराजा ने (सिंधिया खानदान) ने धोखा दे दिया। ग्वालियर के राजा ने अंग्रेजो को खबर दी कि क्रांतिकारी यहां आए हुए है। तब इससे आहत नवाब बांदा, रानी लक्ष्मी बाई, राव साहब, तात्या टोपे,ने बहादुरी से ग्वालियर के खिले पे हमला कर दिया। इन्होंने ग्वालियर महाराजा को अपने महल और किला छोड़ कर भागने को मजबूर कर दिया। फिर नवाब बांदा के नेतृत्व मे उस दरम्यान ग्वालियर रियासत पर अधिकार हुआ।

काबिलेगौर है यह बाद मे अंग्रेजो की मदद से वापस ग्वालियर के राजा ने कब्जे मे ली थी। दुर्भाग्यवश रानी लक्ष्मीबाई लड़ते-लड़ते जख्मी हालत मे शहीद हुई थी। मनु अर्थात झांसी की रानी ने अपने भाई नवाब बांदा से वचन लिया कि भैया मेरा पार्थिव शरीर फिरंगियों के हाथों नही लगना चाहिए। तब नवाब बांदा ने साधु का भेस रखकर बाबा गंगादास की कुटिया तक जा पहुंचे। उन्होंने पार्थिव शरीर को वहां ले जाकर खाट पे लिटाया। फिर घासफूंस की कुटिया को तलवार से काटकर वहीं मौजूद लोगों को आदेश देकर चिता जलवाई गई। जिसके बाद हमारी बुंदेलखंड के बांदा रियासत की बर्बादी का मनहूस सफर शुरू हुआ। वे कहतें है कि तात्या टोपे तो गुप चुप भाग गए थे। वहीं नवाब बांदा को फांसी का हुकुम हुआ किंतु यह गिरफ्तारी के बाद काला पानी / नजरबंदी मे इसलिए तब्दील हुआ क्योंकि नवाब बांदा ने अंग्रेजो के बच्चे और औरतों की सुरक्षा की थी। अंग्रेजों ने बांदा का ख़ज़ाना जप्त कर लिया। तब बांदा मै 2 हजार सेना एवं क्रांतिकारियों को फांसी पे चढ़ा दिया गया। बाँदा नवाब को पूरे परिवार एवं वफादार नौकरों सहित बांदा से निकल कर मध्यप्रदेश मे इंदौर के पास महू मे जहां अंग्रेजो की छावनी थी। वहीं नज़रबंद कर दिया गया। उधर उस दौर मे बांदा स्टेट के कुछ गद्दार अंग्रेजो के पैर पकड़कर उनके मुखबिर बन चुके थे। जिनको अंग्रेजो ने नवाब की जमीनें और दौलत से नवाज़ा। वहीं उनके वारिसों ने आज नवाब बांदा यानि हमारे बुजुर्गों की हकदारी की जमीनें / दौलत पर कुंडली मारकर कब्जा कर लिया। आज वे बाँदा के जमींदार बन बैठे है। उद्गर नवाब बांदा को अपने परिवार, बहन रानी लक्ष्मीबाई के साथ-साथ देश से वफादारी की बड़ी सज़ा भुगतनी पड़ी। आज आजाद भारत मे बाँदा नवाब की ऐतिहासिक निशानियां जर्जर व फटेहाल है। उनका नाम तक बाँदा के लोग लेना नही चाहते है। उनके बनाये बड़े तालाब, बारादरी, सरांय, तहखाना और खजाना सबकुछ खत्म होने की कगार पर है।

क्या रक्षाबंधन पर बाँदा वासियों को अपने नवाब और झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का स्मरण होता है ? क्या राज्य सरकार बाँदा नवाब की विरासतों को सहेजने के लिए मुकम्मल कदम उठा रही है ?
क्या बाँदा के जनप्रतिनिधियों का यह नैतिक उत्तरदायित्व नही है ? अब तो उनके बनाये तालाबों का नया नामकरण तक हो गया है। मसलन नवाब टैंक ‘अटल सरोवर पार्क’ बन गया है। मगर फिर भी वह सदा आम खांटी बाशिंदों की जुबान पर नवाब टैंक ही रहेगा।उल्लेखनीय है कि दुःखद है कि आज हम बाँदा वासी / राज्य और केंद्र सरकार ने उस बाँदा को बाँदा नवाब के नजरिए से देखना बन्द कर दिया है। सीएमओ कार्यालय परिसर मे नवाब की बारादरी, उनका निवास और तहखाना आज जर्जर है और अतिक्रमण मे है। नवाब साहब की बाजार स्थित सरांय / घोड़ो का अस्तबल आधुनिक मार्किट है। बाँदा नवाब के सहयोग से शहर का प्रमुख महेश्वरी देवी मंदिर आज हिन्दू धर्म व महेश्वरी माताजी की आस्था का बड़ा केंद्रबिंदु है। बावजूद इसके बाँदा वासियों मे कुछ सत्तारूढ़ पार्टी से प्रेरित व्यक्ति इसको बाँदा की जगह ‘बामदेव नगर’ बनवाने का सपना पाले है। बाँदा नवाब का बनवाया बाबूसाहब तालाब का रकबा अतर्रा चुंगी चौकी अब आधी आवासीय बस्ती है। वहीं बाँदा नवाब के तालाब को चाटूकारों ने अफसरों के साथ मिलकर अटल सरोवर पार्क बनवाने का सुनियोजित कर्म किया। भाजपा दल के नेता / मीडिया प्रभारी के परिजनों ने नवाब टैंक के पास बने ऑक्सीजन पार्क का वित्तीय लाभ लेने को मोटरबोट टेंडर अनियमत्ता से हासिल किया। अब वहीं रेस्टोरेंट भी संचालित है। हम बाँदा वासी इतने सत्कर्मी है कि केन नदी तट स्थित भूरागढ़ दुर्ग तक अतिक्रमण से न बचा सके। वहां भी सरोवर/कुंड बदहाल है। क़िले के अवशेषों पर आधुनिक लैला-मजनूओं के मोबाइल नम्बर लिखें है। अब राज्य सरकार 5 करोड़ की लागत से बिना कब्जे हटवाए उसमे सुंदरीकरण व पर्यटन की संभावना तलाश रही है।