सरस्वती रमेश
जब युद्ध होते हैं या जबरन थोपे जाते हैं तो विनाश के निशान दो रूपों में देखने को मिलते हैं। पहला शहर में खण्डहर के रूप में दिखाई पड़ता है और दूसरा सरहदों पर विस्थापन के रूप में। विस्थापन का शोक खण्डहरों के शोक से कहीं गहरा और अमिट होता है और शरणार्थी का ठप्पा सबसे ज्यादा बेगाना। लीलाधर मंडलोई का कविता संग्रह ‘जलावतनÓ विस्थापन की दारुण व्यथा है। ये कविताएं उनकी मार्मिक व्यथाएं हैं जो सरहदों पर अटके हैं, देश से भागे या भगाए गए, आसमान से गिरते बमों के नीचे से जान बचाने को बदहवास दौड़ते और शरणार्थी बन गए हैं।
मंडलोई ने युद्ध और विस्थापन की वैश्विक भयावहता को कविता में चित्रित किया है। उनकी कविताओं में विस्थापन के दृश्य हैं, जिसमें विस्थापित लोगों की बिखरी जिंदगी, टूटे घर, बिछड़े परिजन और लाशों को नोचते गिद्ध हैं। मगर इस खण्डहर में एक स्वप्न भी पलता है। स्वप्न अपने देश का, अपने हक का और एक बेहतर जिंदगी का। हमसे दूर जलावतन का शाप भोग रहे लोगों की पीड़ा कविताओं के माध्यम से हमारे पास वैसे ही सहजता से आ जाती है जैसे किसी सरहद को पार करते ही नदी हमारी हो जाती है। कवि ने जो दर्द उकेरे हैं, वे मु_ीभर अनजान लोगों के नहीं, सारी मनुष्यता के हैं। विस्थापन के दर्द को शब्दों में उकेरते हुए उनका अपना अनुभव भी घुलमिल गया है।
कविता के माध्यम से कवि ने एक गंभीर प्रश्न उठाया है कि सरहदों से भरी इस दुनिया में मनुष्यता ने क्या खोया-क्या पाया। ये कविताएं सहजता और सशक्तता से अपना संदेश पाठक तक पहुंचाती हैं।
‘यह एक ऐलान कुर्द की निर्मम मृत्यु का दृश्य-मात्र नहीं,
इंसानियत की खोज में भागी एक विकल पुकार है बेआवाज़।