कांग्रेस का संकट
देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस के सामने 17वीं लोकसभा के चुनाव नतीजों ने चौतरफा संकट पैदा कर दिया है। 2014 के लोकसभा चुनाव में 44 सीटों पर सिमटने वाली कांग्रेस इस बार 52 सीटों तक ही पहुंच पायी। इन निराशाजनक नतीजों के बाद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने अपना पद छोडऩे की पेशकश की और पार्टी की सर्वोच्च नीति निर्धारक संस्था कांग्रेस कार्यसमिति ने उसे ठुकरा दिया। कार्यसमिति ने राहुल को कांग्रेस में आमूलचूल परिवर्तन करने के लिए अधिकृत कर दिया, लेकिन कांग्रेस का संकट इससे कहीं ज्यादा गहरा है। कुछ माह पहले मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ को भाजपा से छीनकर कांग्रेस ने विधानसभा चुनाव में शानदार प्रदर्शन कर केंद्र में लौटने की आस जगा दी थी, लेकिन इन तीन राज्यों में भी कांग्रेस सम्मानजनक स्थिति में नहीं आ पायी। राजस्थान समेत 18 राज्यों में कांग्रेस खाता तक नहीं खोल पायी। ये परिणाम कांग्रेस में आत्मचिंतन करने के लिए इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं कि इस बार लोकसभा की सियासी जंग कांग्रेस ने अपने नये एवं युवा अध्यक्ष राहुल गांधी के नेतृत्व में लड़ी। चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस ने अपना तुरुप का पत्ता मानी जाने वाली प्रियंका वाड्रा को भी सक्रिय तौर पर राजनीति में उतार दिया, लेकिन उनका करिश्मा भी नहीं चल पाया। राहुल-प्रियंका की जोड़ी कांग्रेस को इतनी सीटें भी नहीं दिला पायी कि लोकसभा में उसे विपक्ष के नेता का पद मिल जाए। 2014 में हार के कारणों की समीक्षा के लिए गठित एंटनी कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि राहुल गांधी का नेतृत्व हार का कारण नहीं है। कमेटी ने मुसलमानों का ‘तुष्टीकरणÓ और हिंदुत्व से दूर जाने की नीति को हार की मुख्य वजह माना था, पर अब इस हार से कांग्रेस के सामने कई संकट खड़े हो गए हैं।
किसी भी दल की सफलता के लिए उसके पास संगठन, विचारधारा और नेतृत्व की आवश्यकता होती है। कांग्रेस के पास इन तीनों का अभाव साफ दिखता है। संगठन के तौर पर कांग्रेस का देशभर में ढांचा अवश्य है, लेकिन वह नेहरू-गांधी परिवार के इर्दगिर्द सिमट कर रह गया है। उसमें चापलूस और वातानुकूलित कमरों में बैठकर राजनीति करने वाले ज्यादा हैं। उत्तर प्रदेश व बिहार जैसे राज्यों में कांग्रेस का ढांचा कहीं नहीं दिखता है जबकि पश्चिम बंगाल और अब आंध्र प्रदेश में कांग्रेस से निकले नेता अपनी जमीन तैयार कर चुके हैं। कांग्रेस में कहा जाता है कि राज्यों में भी यह विभिन्न नेताओं के गुटों का समूहभर है, जो एक-दूसरे के खिलाफ लड़ते रहते हैं, लेकिन सभी की आस्था गांधी-नेहरू परिवार के प्रति होती है। नेतृत्व के लिए कांग्रेस गांधी-नेहरू परिवार से इतर सोच भी नहीं सकती है। जबकि इस बार परिवारवाद की राजनीति भी ध्वस्त हो गयी है। नरसिंह राव भी कांग्रेसी प्रधानमंत्री थे, जिनकी उदार आर्थिक नीतियों से देश में आर्थिक समृद्धि के द्वार खुले। अब भी कैप्टन अमरेंदर सिंह जैसे नेता हैं, जिन्होंने मोदी-शाह के विजय रथ को पंजाब में रोक दिया। तीसरा बड़ा संकट विचारधारा का है। कांग्रेस भले ही महात्मा गांधी के विचारों पर चलने का दावा करे, लेकिन वह अब वामपंथ के ज्यादा करीब दिखती है। जिस तरह से भाजपा को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से वैचारिक खुराक मिलती है, कांग्रेस के पास गांधी विचारकों का अभाव है। दरअसल कांग्रेस को अपने नेतृत्व, संगठन और विचारधारा पर ध्यान देने की आवश्यकता है। 21वीं शताब्दी के भारत में अब उन मुद्दों पर राजनीति नहीं हो सकती, जिन पर नेहरू-इंदिरा के जमाने में होती थी। कांग्रेस को समझना होगा कि भारत बदल रहा है।