वक्त ने खोले संकोच के घूंघट

वैज्ञानिक तकनीक और पारिवारिक संबंधों के बीच क्या संबंध है, कहा नहीं जा सकता पर एक समानता है कि दोनों में तेज़ी से विकास और बदलाव हुआ है। परम्परागत चक्की-चूल्हे, सिलबट्टे, ऊखल-मूसल, घड़े-सुराही, थापी-सोटे घर-घर से नदारद हो गये हैं और नये उपकरणों ने अपनी जगह बना ली है। शहरों में तो हर घर की हालत है कि वहीं बहू का कंघा-सीसा अर वहीं ससुरे की खाट।सास-ससुर के सामने जुबान न खोलने वाले घरों में अब शेर और बकरी एक ही घाट पर पानी पी रहे हैं। बड़े-बुजुर्गों की जुबान नियंत्रण की दिशा में जा रही है तो युवा वर्ग की जुबान के सारे ताले एक साथ खुल गये हैं। कुछ शिक्षा ने खोल दिये तो कुछ समय ने। शर्म-लिहाज़ जैसे शब्दों का वजूद बहुत तेजी से लुप्त हो गया है।’घणी जबान ना चलावैÓ जैसे तीर अब सासुओं के तरकश में नहीं रहे। बेचारी राम-राम कर अपना टाइम पास कर रही हैं। संभ्रान्त परिवारों की सास अपने पसंदीदा टीवी सीरियल, किटी पार्टी और बुक क्लब आदि में व्यस्त रहने लगी हैं पर आम सासुयें समय के बहाव और बदलाव को टुकुर-टुकुर देख रही हैं।ग्रामीण अंचलों में स्त्री-पुरुष संबंधों में संकोच के स्तर में ज्यादा परिवर्तन नहीं हुआ है। बड़े-बुजुर्गों के सामने आज भी गांव का लड़का अपनी पत्नी का परिचय यह कह कर नहीं दे पाता कि अमुक उसकी घरवाली है। आज भी अपनी वाइफ को बेबी, बेब या बॉबी कहना उनके बस की बात नहीं है, वे तो अपनी ‘जानÓ को बालकां की मां कह्या करैं हैं। और ‘फलाने की मांÓ संबोधन में जो मिठास है, वह शायद किसी भी निक नेम या शब्दकोष से चुराये नामों में नहीं है। फलाने की मां शब्द में अधिकार बोध के साथ-साथ मातृत्व की महत्ता भी निहित है।इसमें कोई संदेह नहीं है कि गांवों में कई जगह चेहरों से घूंघट उठ चुके हैं पर संकोच के घूंघट ज्यों के त्यों बरकरार हैं। बहुयें आज भी अपने बड़ों के सामने कुर्सी पर नहीं बैठतीं, एक खाट पर साथ बैठने का तो प्रश्न ही नहीं है।

Like us share us

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

वक्त ने खोले संकोच के घूंघट

वैज्ञानिक तकनीक और पारिवारिक संबंधों के बीच क्या संबंध है, कहा नहीं जा सकता पर एक समानता है कि दोनों में तेज़ी से विकास और बदलाव हुआ है। परम्परागत चक्की-चूल्हे, सिलबट्टे, ऊखल-मूसल, घड़े-सुराही, थापी-सोटे घर-घर से नदारद हो गये हैं और नये उपकरणों ने अपनी जगह बना ली है। शहरों में तो हर घर की हालत है कि वहीं बहू का कंघा-सीसा अर वहीं ससुरे की खाट।सास-ससुर के सामने जुबान न खोलने वाले घरों में अब शेर और बकरी एक ही घाट पर पानी पी रहे हैं। बड़े-बुजुर्गों की जुबान नियंत्रण की दिशा में जा रही है तो युवा वर्ग की जुबान के सारे ताले एक साथ खुल गये हैं। कुछ शिक्षा ने खोल दिये तो कुछ समय ने। शर्म-लिहाज़ जैसे शब्दों का वजूद बहुत तेजी से लुप्त हो गया है।’घणी जबान ना चलावैÓ जैसे तीर अब सासुओं के तरकश में नहीं रहे। बेचारी राम-राम कर अपना टाइम पास कर रही हैं। संभ्रान्त परिवारों की सास अपने पसंदीदा टीवी सीरियल, किटी पार्टी और बुक क्लब आदि में व्यस्त रहने लगी हैं पर आम सासुयें समय के बहाव और बदलाव को टुकुर-टुकुर देख रही हैं।ग्रामीण अंचलों में स्त्री-पुरुष संबंधों में संकोच के स्तर में ज्यादा परिवर्तन नहीं हुआ है। बड़े-बुजुर्गों के सामने आज भी गांव का लड़का अपनी पत्नी का परिचय यह कह कर नहीं दे पाता कि अमुक उसकी घरवाली है। आज भी अपनी वाइफ को बेबी, बेब या बॉबी कहना उनके बस की बात नहीं है, वे तो अपनी ‘जानÓ को बालकां की मां कह्या करैं हैं। और ‘फलाने की मांÓ संबोधन में जो मिठास है, वह शायद किसी भी निक नेम या शब्दकोष से चुराये नामों में नहीं है। फलाने की मां शब्द में अधिकार बोध के साथ-साथ मातृत्व की महत्ता भी निहित है।इसमें कोई संदेह नहीं है कि गांवों में कई जगह चेहरों से घूंघट उठ चुके हैं पर संकोच के घूंघट ज्यों के त्यों बरकरार हैं। बहुयें आज भी अपने बड़ों के सामने कुर्सी पर नहीं बैठतीं, एक खाट पर साथ बैठने का तो प्रश्न ही नहीं है।

Like us share us

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *