राजकुमार सिंहलोकतंत्र की परिभाषा क्या है? यह सवाल कई पाठकों को अटपटा भी लग सकता है, पर देश में लोकतंत्र की दशा-दिशा पर गंभीर सार्थक चर्चा के लिए यह जरूरी है। लोकतंत्र की संक्षिप्त प्रचलित परिभाषा है : जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता का शासन। अब जरा अपने देश के लोकतंत्र को इस कसौटी पर कसिए। चुनाव प्रक्रिया को लोकतंत्र की प्राणवायु कहा जाता है। यह गलत भी नहीं है। चुनाव प्रक्रिया के माध्यम से ही मतदाता जनादेश देता है और अपनी आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति भी करता है। सात दशक पहले आजाद हुए भारत में सत्रहवीं लोकसभा के चुनाव चल रहे हैं। ऐसे में स्वाभाविक सवाल है कि पिछले सोलह लोकसभा चुनावों में लोकतंत्र कितना स्वस्थ-परिपक्व हुआ है और वह प्रचलित परिभाषा पर कितना खरा उतरता है? भारतीय लोकतंत्र के इस सफर को कोई नकारात्मक सोच वाला ही पूरी तरह नकार सकता है। भारतीय चुनाव प्रणाली की विश्वव्यापी साख और उसमें मतदाताओं की व्यापक भागीदारी भी सकारात्मक संकेत ही देती है, लेकिन क्या इतने भर से लोकतंत्र अपनी परिभाषा और उससे जुड़ी जन आकांक्षाओं पर खरा उतर सकता है?कटु सत्य यही है कि हमारी लोकतांत्रिक प्रणाली में जनता की भूमिका महज मतदान तक सीमित रह गयी है या कर दी गयी है। सच्चे लोकतंत्र का तो तकाजा है कि प्रत्याशी चयन में भी जन आकांक्षाओं का ध्यान रखा जाये या कह सकते हैं कि जनता के बीच बेहतर छवि वाला लोकप्रिय प्रत्याशी ही चुना जाये, लेकिन हो इसके उलट रहा है। बेशक प्रत्याशी चयन का एक आधार उसकी राजनीतिक दल विशेष के प्रति निष्ठा भी हो सकती है, लेकिन लगता नहीं कि किसी भी दल या नेता के लिए इस शब्द का कोई अर्थ भी रह गया है। आजादी के बाद कई दशक तक प्रत्याशी चयन की यही प्रक्रिया रही भी कि जिला इकाई तीन नामों का पैनल भेजती थी, फिर प्रदेश इकाई उस पर विचार कर निर्णय लेती थी। मामला अगर लोकसभा चुनाव का हो तो अंतिम फैसला केंद्रीय आलाकमान लेता था, मगर अपवादस्वरूप ही पैनल से बाहर के किसी नाम पर मुहर लगायी गयी हो। राजनीतिक दल दावा कर सकते हैं कि प्रत्याशी चयन की अब भी यही प्रक्रिया है, पर यह दावा दलों और नेताओं की लोकतंत्र में आस्था के दावे की तरह ही छलावे के अलावा कुछ नहीं।कोई बतायेगा कि गोरखपुर से रविकिशन, आजमगढ़ से निरहुआ, गुरदासपुर से अजय सिंह देओल उर्फ सन्नी देओल, उत्तर–पश्चिमी दिल्ली से हंसराज हंस, रोहतक से अरविंद शर्मा, दक्षिण दिल्ली से बिजेंद्र सिंह, मुंबई से उर्मिला मातोंडकर, लखनऊ से पूनम सिन्हा और वाराणसी से तेजबहादुर यादव का नाम किस पैनल में कब और किस आधार पर आ गया? गोरखपुर वह लोकसभा संसदीय क्षेत्र है, जिसका प्रतिनिधित्व योगी आदित्यनाथ उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने तक करते रहे। उनसे पहले उनके गुरु महंत अवैद्यनाथ गोरखपुर का प्रतिनिधित्व करते थे। सत्रहवीं लोकसभा के चुनाव में गोरखपुर का प्रतिनिधित्व करने के लिए भाजपा आलाकमान ने रविकिशन को चुना है, जिनकी कुल जमा पहचान भोजपुरी फिल्मों के हीरो की है, जिसे कुछ हिंदी फिल्मों में भी छोटे-मोटे रोल मिलते रहे। रविकिशन की अगर कोई राजनीतिक विचारधारा या दल-नेता विशेष के प्रति निष्ठा है भी तो वह भाजपा आलाकमान ही जानता होगा। निरहुआ भी भोजपुरी सिनेमा के लोकप्रिय गायक-हीरो हैं। उनकी भी राजनीतिक विचाराधारा और दल-नेता विशेष के प्रति निष्ठा खोज का विषय है। सन्नी देओल के पिता धर्मेंद्र अटलबिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्वकाल में बीकानेर से भाजपा सांसद रह चुके हैं। धर्मेंद्र की दूसरी पत्नी हेमामालिनी लगातार दूसरी बार भाजपा टिकट पर मथुरा से लोकसभा चुनाव लड़ रही हैं, पर सन्नी की राजनीतिक विचारधारा क्या है? नामांकन के बाद खुद सन्नी ने कहा कि उन्हें राजनीति का पता नहीं, पर वह देशभक्त हैं। बेशक उनकी देशभक्ति पर शक नहीं किया जा सकता, पर यह बात तो हर भारतीय पर लागू होती है। फिर गुरदासपुर से सन्नी ही क्यों, कविता खन्ना या स्वर्ण सलारिया क्यों नहीं? इसलिए कि गुरदासपुर से कई बार भाजपा सांसद रहे विनोद खन्ना के निधन के बाद हुए उपचुनाव में कांग्रेस के सुनील जाखड़ ने भारी अंतर से यह सीट जीत ली थी, और इस चुनाव में उसे वापस पाने का स्टारडम के अलावा कोई रास्ता भाजपा को नहीं सूझा। वैसे पड़ोसी राजस्थान में विधानसभा चुनाव में सत्ता गंवा चुकी भाजपा को सन्नी देओल की स्टार अपील से वहां भी कुछ चुनावी लाभ की आस है।हंसराज हंस लोकप्रिय सूफी गायक हैं। पंजाब से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़कर हार चुके हैं। उनकी राजनीतिक विचारधारा और दलीय निष्ठा, (अगर कभी रही है तो) कब बदल कर कांग्रेसी से भाजपाई हो गयी, कोई नहीं जानता। अब उनके समधी दलेर मेहंदी भी भाजपा में शामिल हो गये हैं। बेशक वह लोकप्रिय पंजाबी गायक हैं, पर उनके विरुद्ध अवैध रूप से लोगों को विदेश भेजने यानी कबूतरबाजी का मुकदमा भी चल रहा है। बिजेंद्र सिंह भारत का नाम रोशन करने वाले मुक्केबाज रहे हैं। उसी के बूते उन्हें हरियाणा पुलिस में डीएसपी की नौकरी मिली थी, जिससे इस्तीफा देकर वह अंतिम क्षणों में दक्षिण दिल्ली से कांग्रेस के उम्मीदवार बन गये। यानी जिस दिल्ली में कांग्रेस लगातार तीन कार्यकाल तक सत्ता में रही, वहां लोकसभा प्रत्याशी बनने लायक कोई नेता-कार्यकर्ता नहीं था?अरविंद शर्मा हरियाणा की राजनीति में अनजान नाम नहीं है। वह एक बार सोनीपत से निर्दलीय और दो बार करनाल से कांग्रेस के टिकट पर सांसद रह चुके हैं। ऐन चुनाव से पहले भाजपा का दामन थामा तो अटकलें करनाल से ही चुनाव लड़ाने की थीं, पर भाजपा ने पुराने निष्ठावान संजय भाटिया पर ही दांव लगाना पसंद किया। तब चर्चा चली कि अरविंद वापस कांग्रेसी बन सकते हैं या फिर निर्दलीय ही चुनाव लड़ सकते हैं, लेकिन किंतु-परंतु करते हुए अंतिम क्षणों में अरविंद शर्मा को रोहतक से चुनाव मैदान में उतार दिया। क्या रोहतक में भाजपा के पास कोई निष्ठावान कार्यकर्ता-नेता नहीं था, जिसे चुनाव लड़वाया जा सके? उर्मिला मातोंडकर बॉलीवुड की चर्चित अभिनेत्री रही हैं, लेकिन उनकी राजनीतिक सोच या जुड़ाव की चर्चा कभी नहीं हुई। अचानक ही कांग्रेस ने उन्हें लोकसभा उम्मीदवार बना दिया। इसी तरह कांग्रेस ने कभी लोकप्रिय अभिनेता गोविंदा पर भी दांव लगाया था। गोविंदा जीते भी, लेकिन अंतत: क्या हुआ? गोविंदा को फिल्मों में ही लौटना पड़ा। लोकप्रियता के सहारे भीड़ जुटाना या चुनाव जीत लेना एक बात है और जन आकांक्षाओं की कसौटी पर खरा उतरना एकदम दूसरी बात। याद है, अस्सी के दशक में राजनीतिज्ञ हेमवती नंदन बहुगुणा को इलाहाबाद से हराने वाले बॉलीवुड के महानायक अमिताभ बच्चन की राजनीति का क्या हश्र हुआ? पर न तो ये तथाकथित सितारे कोई सबक सीखना चाहते हैं और न ही राजनीतिक दल।लगभग तीन दशक पुराना एक वाकया याद आ रहा है। कांग्रेस से बगावत कर ‘फकीरÓ बनने को आतुर राजा विश्वनाथ प्रताप सिंह मुंबई यात्रा में फिल्मी सितारों के आकर्षण का केंद्र बन रहे थे। राजबब्बर तो खुलकर राजनीति में आ ही गये, पर जब मैंने मुंबई में बिहारी बाबू शत्रुघ्न सिन्हा से इस बाबत पूछा तो उनका जवाब था : राजनीति में तो जरूर आऊंगा, पर राजीव गांधी का अरुण गोविल या करुणानिधि की राधिका बनकर नहीं। अरुण गोविल ने रामानंद सागर के लोकप्रिय धारावाहिक रामायण में श्रीराम की भूमिका निभायी थी, पर कांग्रेस में चले गये थे, जबकि दक्षिण भारत की लोकप्रिय अभिनेत्री राधिका करुणानिधि के द्रमुक में। बाद में शत्रुघ्न सिन्हा भाजपा के रास्ते राजनीति में आये। राज्यसभा का सदस्य बनाये गये और वाजपेयी सरकार में मंत्री भी, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बढ़ती नाराजगी उन्हें अंतत: कांग्रेस में ही ले गयी। रंग बदलती राजनीति की विद्रूपता यहीं समाप्त नहीं होती। शत्रुघ्न सिन्हा पटना से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं तो उनकी पत्नी पूनम लखनऊ से सपा-बसपा-रालोद गठबंधन की उम्मीदवार हैं। सो, फिल्म की तरह राजनीति में भी बिहारी बाबू को डबल रोल करना पड़ रहा है। बिहार में चुनाव प्रचार करते समय राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बताते हैं तो लखनऊ में अखिलेश यादव को। और आखिर में तेज बहादुर यादव। जवानों को खराब खाना दिये जाने का सोशल मीडिया पर खुलासा करने पर बीएसएफ से बर्खास्त रेवाड़ी (हरियाणा) का यह जवान अंतिम क्षणों में वाराणसी से प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ सपा का उम्मीदवार बना दिया गया है। बेशक अन्य नागरिकों की तरह तेज बहादुर को भी चुनाव लडऩे का अधिकार है, पर पूर्व घोषित उम्मीदवार शालिनी यादव का टिकट काट कर उसे देने के पीछे सपा की क्या राजनीतिक विचारधारा रही? जाहिर है, चुनाव के नाम पर सिर्फ सत्ता का खेल चल रहा है, जिसमें नीति और निष्ठा गौण हैं, बस जीत अहम है। फिर वह चाहे जिस कीमत पर भी मिले। नतीजतन सत्ता का खेल दरअसल लोकतंत्र से खिलवाड़ बन गया है।००