भास्कर के रिपोर्टर राहुल कोटियाल सिंघु बॉर्डर पर 25 जनवरी की शाम छह बजे से ही मौजूद थे। 26 जनवरी की सुबह वे सिंघु से किसानों के काफिले के साथ निकले और लाल किले पर उनके साथ रात 8 बजे तक रहे। ट्रैक्टर परेड के साथ वे लगातार 26 घंटे तक रहे। इस दौरान क्या-क्या हुआ? पूरी कहानी, उन्हीं की जुबानी…
25 जनवरी की शाम से ही सिंघु बॉर्डर के माहौल में बगावत साफ महसूस होने लगी थी। बीते दो महीनों से जो आंदोलन अपने संयम और अनुशासन के लिए जाना जा रहा था, 26 जनवरी की सुबह तक उसके तेवर बदल चुके थे। बड़ी संख्या में नौजवान ‘रैली करेंगे-रिंग रोड पे’ और ‘ट्रैक्टर दे नाल-ट्रॉली जाऊ’ (ट्रैक्टर के साथ ट्रॉली भी जाएगी) जैसे नारे लगा रहे थे। जबकि किसान नेताओं ने यह ऐलान किया था कि रैली दिल्ली पुलिस के रूट-मैप पर ही होगी और इसमें शामिल होने वाले ट्रैक्टरों के साथ ट्रॉली नहीं रहेगी।
आंदोलन के दौरान यह पहली बार था, जब किसान नेताओं के निर्देशों को खुले-आम चुनौती देते हुए युवा अपनी जिद पर अड़े थे। स्थिति यह बन गई थी कि 25 जनवरी की शाम ढलते-ढलते ये बागी तेवर आंदोलन का नया चेहरा लगने लगा था। 25 जनवरी की रात ‘संयुक्त किसान मोर्चा’ के जिम्मेदार नेताओं का मंच अब पूरी तरह से बेकाबू युवाओं के हाथों में आ गया था। यह निश्चित था कि 26 जनवरी की रैली उस रूट तक सीमित नहीं रहेगी जो दिल्ली पुलिस और किसानों के बीच लगातार बैठकों के बाद तय हुई थी। 26 जनवरी को ऐसा ही हुआ भी।