@पीयूष बबेले, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक, पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ जी के मीडिया सलाहकार।
WorldEnvironmentDay
आज 5 जून विश्व पर्यावरण दिवस है। शब्दों के सागर प्रवाह मे दर्जनों लेख,खबरें, गतिविधियों के दरम्यान यह लेख पढ़ा जाना चाहिए। क्योंकि आज इसकी प्रासंगिकता अति आवश्यक है।
सभ्यताएं मातृहंता होती हैं मशहूर पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र अक्सर यह बात सभ्यता और नदी के रिश्ते के बारे में कहा करते थे। उनका कहना था कि सभ्यताएं जिन नदियों के किनारे पैदा होती हैं, विकसित होने के बाद उन्हीं नदियों को खा जाती है। यह बात दिल्ली वाले यमुना के बारे में, कानपुर वाले गंगा के बारे में और हजारों-हजार लोग अपने-अपने गांव-कस्बे में सूख चुकी नदियों को देखकर बखूबी समझ सकते है।
हममें से हर आदमी अपने-अपने हिस्से की सूखती नदी को देखकर वास्तव में दुखी होता है। सूखी नदी से गुजरते हुए अपने बचपन की यादों में जाता है। नदी मे छपाकों के बीच होने वाली शरारतें उसके मन में हूक उठाती है। फिर अचानक हम वापस वर्तमान में आते है और व्यवस्था को कोसते हुए कंधे झटककर आगे बढ़ जाते है। इस पूरी प्रक्रिया में या तो नादानी बस या फिर जानबूझकर हम इस बात को बिलकुल दरकिनार कर देते हैं कि नदी सुखाने में बहुत नहीं, तो थोड़ी भूमिका हमारी भी है।
व्यवस्थाओं की गलतियां तो हम अक्सर समझ ही लेते हैं, आज इस पर्यावरण दिवस पर हम अपने हिस्से की गलतियों को समझने की भी कोशिश करते है। सबसे पहले हम यह समझते हैं कि नदी किसे कहते है। आपको लगेगा कि यह बड़ी बचकानी बात है कि नदी किसे कहते हैं, लेकिन अगर एक बार हम नदी को ढंग से समझ लें तो हमें अपनी और अपनी व्यवस्था की गलितयां समझने में आसानी होगी।
नदी किसे कहते है–
चलिए पहले गंगा की ही बात करते है। जो लोग उत्तराखंड के चार धाम की यात्रा करके लौटते हैं, उनके मुंह से आपने अक्सर सुना होगा कि गंगोत्री से तो पतली सी धार निकलती है, लेकिन नीचे आकर गंगा बड़ी हो जाती है। और न जाने कैसे मैदान में आकर इतनी बड़ी नदी बन जाती है। उनका विस्मय सही है, क्योंकि नदी कोई पानी की धार भर नहीं है जो अपने उद्गम से निकलकर समुद्र में मिलने तक सीधी बहती चली जाती है।
गंगा को बनाने में गंगोत्री जैसे हजारों ग्लेशियर लगे होते हैं जो पूरे हिमालय से हजारों जल धाराएं और नदियां पैदा करते हैं, जो गंगा में मिलती रहती हैं और नदी बनती जाती है।
इन ग्लेशियरर्स के अलावा दूसरी चीज जो नदी को बनाती है वह है बारिश का पानी। गंगा नदी के बेसिन में जहां जितना पानी बरसता है, अंतत: उसे सहायक नदियों के जरिए गंगा की मुख्यधारा में मिलना है और नदी को बड़ा करना है।
इन दो चीजों के अलावा तीसरी चीज है भूजल। यानी जमीन के नीचे भरा पानी। आपने देखा होगा कि आपके शहर या गांव के पास बहने वाली नदी का तल गांव-शहर के सबसे निचले तल से भी नीचा होता है। अगर नदी का तल ऊंचा और गांव का तल नीचा हो, तो फिर तो गांव पानी में डूब ही जाएगा। यह व्यवस्था इसलिए है कि जब बारिश नहीं होती और ग्लेशियर भी कम पिघलते हैं, उस समय भी भूजल जमीन के भीतर बह रही एक्वाफिर्स या जलधाराओं के माध्यम से रिस-रिसकर नदी में जाता रहता है और नदी के प्रवाह को बनाए रखता है। यही वह प्रमुख वजह है जिनसे उन नदियों में भी सालभर पानी बना रहता है, जिनका जलस्रोत कोई ग्लेशियर नहीं है।
यानी नदी को बनाने के तीन प्रमुख कारक हैं- ग्लेशियर, वर्षा जल और भूजल। यह तीन चीजें आपको बताती हैं कि नदी बनती कैसे है. अब इन तीनों को जानने के बाद यह भी जान लिया जाए कि नदी मिटती कैसे है। और उसे मिटाने में हमारी भूमिका क्या है।
नदी कैसे मरती है-
गंगा के बारे में पहला एक्शन प्लान आए तीन दशक से ज्यादा का समय हो गया है। लेकिन नदी की दशा में अब तक कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं हुआ है। इसकी पहली वजह है कि आजादी के बाद अपनी बड़ी आबादी की भूख और प्यास मिटाने के लिए हमने बड़े पैमाने पर बांध बनाए और नहरें निकालीं। यही बांध शहरों को पानी सप्लाई के जरिए हमारी प्यास बुझाते हैं और खेतों को पानी देकर अन्न उपजाकर हमारी भूख मिटाते है। बुंदेलखंड जैसे जल संकट क्षेत्र मे नदियों पर बेतहासा खनन किया गया, जा रहा है।
घर पर पानी बर्बाद होता है तो नदी मरती है-
इतनी बड़ी आबादी को जिंदा रखने के लिए ऐसा करना जरूरी भी था। लेकिन ऐसा करने के दौरान पानी की बरबादी करना बिलकुल जरूरी नहीं था। पहले आदमी जब नदी में नहाने जाता था, तो कितना भी नहा ले, वह नदी का एक बूंद पानी बरबाद नहीं कर पाता था, क्योंकि नदी का पानी नदी में रहता था। इसी तरह जब आदमी कुंए से पानी भरकर लाता था, तो घर में पानी का इस्तेमाल सिर्फ पीने के लिए और भोजन बनाने के लिए होता था। थोड़ा बहुत पानी निस्तार के लिए होता था। यह पानी इतना कम होता था कि घर से बाहर निकलने के बाद कच्ची जमीन में जाकर जमीन में सोख जाता था।
लेकिन जब बिना मेहनत के पानी घर आने लगा तो हम पानी का इस्तेमाल करने के बजाय उससे खेलने लगे। तकनीक के विकास, आधुनिक सुख सुविधाओं और औद्योगिक जरूरतें बढ़ने के बाद हमारा पानी का यह खेल खिलवाड़ में बदलता चला गया। नतीजा यह हुआ कि पहले बड़े शहर, फिर कस्बे और अब गांव तक नदी से पानी खींचे जा रहे हैं, बिना इसकी परवाह किए हुए कि यह पानी नदी को वापस मिल रहा है या नहीं।
खेती के पैटर्न बदलते है तो नदी मरती है-
यह तो हुई घरों और उद्योगों की बात, अब बात करते है खेती की। खेती को पानी चाहिए इसमें किसी को कोई संदेह नहीं है। लेकिन जब खेती के नाम पर हमें बांधों और नहरों से पानी मिलने लगा तो हमें पानी की हवस हो गई। फिर हमने खेती के पैटर्न बदल दिए। पंजाब जैसा इलाका जिसे कुदरत ने चना और दलहन जैसी खेती के लिए बनाया था, उसे हमने खूब पानी पीने वाली धान और गेहूं जैसी फसलों का गढ़ बना दिया। गन्ना पहले बाढ़ वाले इलाकों में होता था, लेकिन जब गंगा की नहरें निकलीं तो पश्चिमी यूपी गन्ना बेल्ट बन गया। चूंकि ये दोनों इलाके हिमालय से निकलने वाली नदियों के रास्ते में पड़ने वाले पहले मैदानी इलाके थे, इसीलिए हमने यहीं पानी का खूब उपयोग कर डाला और उस उपयोग को जल बंटवारे के रूप में कानूनी जामा भी पहना दिया। जो पानी नीचे जाना चाहिए था, वह ऊपर ही जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल होने लगा। इस बात की तस्दीक करनी है तो दिल्ली के ऊपर हरियाणा के हथिनी कुंड बैराज चले जाइये। इस बैराज के डाउन स्ट्रीम को आप पैदल चलकर पार कर सकते हैं और आपके पंजे तक नहीं भीगेंगे। क्यों, क्योंकि उसके ऊपर का सारा पानी कानूनी रूप से अलग-अलग राज्यों को बांट दिया गया है।
जब गांव-शहर में बोरिंग होती है तो नदी मरती है-
यहां तक हमने देखा कि अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए हमने नदियों को बांधा और उनका पानी घरों, खेतों और फैक्ट्रियों तक ले आए। पानी मुठ्ठी में आने के बाद हमने अपनी जरूरतें बढ़ा ली और पानी से खिलवाड़ करने लगे लेकिन हमारी बढ़ती जरूरतों या फिर महात्मा गांधी के शब्दों में कहें तो बढ़ती हवस को पूरा करने के लिए यह पानी भी कम पड़ने लगा। तब हमने बहते पानी के साथ ही जमीन के भीतर बसे भूजल पर डाका डालना शुरू किया। घरों, खेतों और फैक्ट्रियों में पानी की तलब पूरी करने के लिए पूरे देश में अंधाधुंध बोरिंग की गईं। यह बोरिंग पुराने जमाने के कुओं और रहंट से भूजल निकालने के तरीकों से अलग थीं। कुएं से पानी निकालने में मेहनत लगती थी, इसलिए सीमित पानी निकाला जाता था। रहंट का पानी भी सीमित था। लेकिन बोरिंग के पाइप से निकलती मोटी धार जमीन को सुखाने के लिए बहुत काफी थी। पिछले साल नासा ने अपनी एक रिपोर्ट में दिखाया था कि पंजाब और हरियाणा के बड़े इलाके में भूजल बहुत ज्यादा गिर गया है, जबकि इस इलाके में औसत बारिश में कोई खास कमी नहीं आई है. यानी भूजल का बेतहाशा दोहन हो रहा है।
भूजल के इस दोहन के कारण जो पानी एक्वाफिर्स के जरिए वापस नदी में जाना चाहिए था, नदी में नहीं पहुंच सका. इस तरह नदियों को बांधने के बाद उन तक भूजल से होने वाली पानी की सप्लाई को भी हमने रोक दिया।
जब सीवेज गिरता है तो नदी मरती है-
नदी को मिलने वाले पानी के दो रास्ते बंद करके ही हमें संतोष नहीं हुआ। उसका साफ पानी छीनकर, हमने उसे जी भरकर गंदा किया। फिर प्रदूषित पानी सीवेज के रास्ते नदी में डाल दिया। दिल्ली में यमुना के किसी भी पुल से गुजरते समय दुर्गंध को जो भभका आपकी नाक को सड़ा देता है, असल में वह यमुना की लाश की बदबू है। यमुना की लाश इसलिए, क्योंकि हथनी कुंड में बंधने के बाद दिल्ली में यमुना में एक बूंद साफ पानी नहीं आता, जो पानी यमुना में दिखता है वह उसमें गिरने वाले 17 नालों का विशुद्ध प्रदूषित पानी है। वह सिर्फ गंदा नाला है, उसमें नदी के साफ पानी की एक बूंद नहीं है। इस तरह पहले हमने नदी को सुखाया और फिर उसमें प्रदूषित पानी डाल दिया. जब हमने नदी के साथ ऐसा क्रूर व्यवहार किया, तो नदी भी तो हमारे साथ कुछ करेगी।
जब नदी मरती है, तो हम भी मरते है-
नदी आखिर कब तक बर्दाश्त करती ? अब उसने बदला लेना शुरू कर दिया है। इस बदले को जरा वैज्ञानिक नजरिये से समझिये। हम यह जान चुके हैं कि प्राकृतिक रूप से भूजल रिसकर नदी में जाता है लेकिन जब हमने अंधाधुंध बोरिंग शुरू कर दी, तो भूजल का स्तर बहुत नीचे चला गया। इतना नीचे की नदी के तल से भी नीचे चला गया। ऐसे में हुआ यह कि पानी जमीन से रिसकर नदी में जाने के बजाय, नदी से रिसकर भूजल में मिलने लगा। चूंकि नदी में हमने पूरी तरह से प्रदूषित पानी डाला हुआ था, लिहाजा यही प्रदूषित पानी नदी में से रिसकर शहरों के पूरे भूजल को प्रदूषित करने लगा। इसका नतीजा हुआ कि अब हम जब गहरी बोरिंग करके पानी निकालते हैं तो हमें साफ पानी के बजाय प्रदूषित पानी मिलने लगा है। यह पानी बड़े पैमाने पर बीमारियों की जड़ बन रहा है।
दूसरी चीज यह कि जब भूजल को बेतहाशा निकाला जाता है तो जमीन के अंदर पानी और बाकी तत्वों का संतुलन गड़बड़ा जाता है। पश्चिम बंगाल की जाधवपुर यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर दीपांकर चक्रवर्ती ने इस असंतुलन पर पूरा अध्ययन किया है। अपने 20 साल से चल रहे शोध में वे अब तक बंगाल से लेकर पश्चिमी यूपी के गढ़मुक्तेश्वर तक गंगा के पास के भूजल में आर्सेनिक की ज्यादा मात्रा साबित कर चुके हैं। बढे़ हुए आर्सेनिक ने गंगा किनारे के सारे भूजल को पीने के लिए निषिद्ध कर दिया है। आपको यकीन नहीं होता तो यूपी के बलिया और आसपास के इलाकों में जाकर देखिए जहां आर्सेनिक ने कहर ढा रखा है। यहां आपको ऐसे हैंडपंप मिल जाएंगे, जिन पर लिखा रहता है कि इनका पानी न पिएं, इनमें आर्सेनिक ज्यादा है।
यही हाल यमुना का है। आगरा में यमुना का प्रदूषित जल शहर के भूजल में मिलने से पूरे शहर का भूजल प्रदूषित हो चुका है। गंगा-यमुना प्रमुख नदियां हैं, इसलिए इनकी जांच पड़ताल होती रहती है, लेकिन छोटी नदियों और उनके पास बसे कस्बों की विस्तृत जांच की जाएगी तो कहानी इससे उलट नहीं आएगी। इस भयावह सचाई के बाद मन में सवाल आएगा कि नदी का बदला रोकने के लिए कोई तो रास्ता होगा।
हम भी बच सकते हैं और नदी भी, बशर्त…
नदी का बदला रुक सकता है, लेकिन शांति का सफेद झंडा पहले हमें ही दिखाना होगा। अगर हम अपना मातृहंता स्वभाव छोड़ देंगे, तो माता भी कुमाता बनने को मजबूर नहीं होगी। इसके लिए पहली बात तो हमें अपने राष्ट्रपिता की ही माननी पड़ेगी जो उन्होंने एक शताब्दी पहले लिखी अपनी किताब हिंद स्वराज में कही थी। सवाल-जवाब शैली में लिखी इस पतली सी किताब में सवाल पूछा जाता है- क्या आप आजादी के बाद भारत का विकास इंग्लैंड के मॉडल पर करना चाहते है। जवाब आता है- नहीं, इंग्लैंड के मॉडल पर भारत का विकास नहीं हो सकता। इंग्लैंड छोटा सा देश है। और उसके इस तरह के विकास के लिए पूरी दुनिया का शोषण करना पड़ रहा है। अगर भारत जैसा देश इस मॉडल पर आगे बढ़ा तो उसे धरती जैसे कई ग्रहों का शोषण करना पड़ेगा।
महात्मा गांधी जो बात इतनी आसानी से कह गए, उस तक लौटने में हमें अपनी आदतें बदलनी होंगी। पहली जरूरत तो यह होगी कि खेती की जरूरत के हिसाब से पानी के इस्तेमाल की बजाय पानी की उपलब्धता के हिसाब से खेती करनी होगी। यह काम हम हजारों साल से करते आए थे और इसे कुछ दशक पहले ही छोड़ा है। इस पर लौटा जा सकता है।
दूसरी चीज यह कि अब शहरों में रहना तो नहीं छोड़ा जा सकता और न उनकी पानी की जरूरत घटाई जा सकती है। ऐसे मे ग्राउंड वाटर रिचार्ज को आंदोलन के तौर पर छेड़ा जा सकता है। केरल जैसे राज्य इस बारे में रोल मॉडल हो सकते हैं। जहां ग्राउंड वाटर रिचार्ज शहरी जीवन का अभिन्न हिस्सा हो गया है। हम इस बात की ताकीद करें कि जहां से भी हम जमीन का पानी निकाल रहे हैं, हर हाल में उसका बड़ा हिस्सा जमीन को लौटा दे। ये रिचार्ज पिट बारिश के पानी को जमीन में पहुंचाने के भी काम आ जाएंगे। पहले यह काम तालाबों से होता था, लेकिन अब तालाबों की जमीन पर आबादी का अवैध और वैध दोनों तरह का कब्जा हो चुका है।
बाकी का काम सरकारों का है। सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट और दूसरी बड़ी परियोजनाओं को सरकारें ही अपने मॉडल के हिसाब से चला पाएंगीं। लेकिन वे योजनाएं तभी बनेंगी, जब सरकारों को लगेगा कि जनता इनके लिए तैयार है। अगर जनता इसी तरह पानी खर्च करना चाहेगी तो सरकारें और ज्यादा पानी निकालने की योजनाएं बनाएंगी। और पानी की इस चाह में हम सूखा पैदा करते जाएंगे।