संस्कारों-संस्कृति से मुक्त भटकन
कमलेश भारतीय
क्या जिंदगी का पहला प्यार अन्यत्र विवाह हो जाने पर मानसिक रोग में बदल जाता है? क्या वह सचमुच प्यार था भी? क्या उस प्यार की भेंट अपनी गृहस्थी चढ़ाई जा सकती है? बहुत सारे ऐसे सवाल महेशचंद्र शर्मा गौतम के उपन्यास ‘दिग्भ्रान्त मनÓ को पढऩे के बाद उठते हैं। जवाब भी इसी के अंत में भारतीय संस्कृति में छिपा मिलता है जब नायिका सुरेखा अपने पति के पास लौट जाने का फैसला करती है।
सुरेखा कॉलेज में पढ़ते समय मनोहर नामक सहपाठी युवक के प्रेमजाल में फंस कर होटल में अपने यौवन समर्पित कर देती है लेकिन मनोहर यह वादा नहीं करता कि वह सुरेखा से विवाह करेगा। मनोहर पढ़ाई के बाद अमेरिका चला जाता है और सुरेखा की शादी उसके माता-पिता अभिनव से कर देते हैं जो देखने में सुंदर, स्वभाव से सुशील और संस्कारी युवक है लेकिन जब-जब मिलन का अवसर आता है मनोहर की याद आती है और सुरेखा जब तक मनोहर को अनुभव करती है तब-तब मुग्ध रहती है लेकिन जैसे ही उसे ध्यान आता है कि यह तो अभिनव है तो उसका व्यवहार एकदम बदल जाता है। यहां तक कि बेटे राजू के जन्म को भी वह अभिनव से नहीं बल्कि मनोहर से जोड़ती है। बस यही मनोग्रंथी सारे उपन्यास में चलती है और सब कुछ अच्छा होते हुए और बराबर की नौकरी वाले पति को तलाक देने निकल पड़ती है सुरेखा। अंत में जब मनोहर वापस आकर होटल में मिलता है और वह उसकी अमेरिका की कहानी सुनती है तब अहसास होता है कि वह प्यार करने वाला नहीं बल्कि सिर्फ यौवन लूटने वाला है। अपनी गलती का अहसास कर वह गृहस्थी बचा लेती है।
बार-बार मनोहर की याद और ‘दिग्भ्रान्त मनÓ लिखकर जैसे अपने लेखन के उद्देश्य को स्पष्ट किया गया है और पाठक को सरल समीकरण का सवाल हल करके दिखाया गया है। इससे संकोच और संकेतात्मक लेखन किया जाता तो उपन्यास और भी सशक्त बनता। फिर भी इसकी रोचकता और भारतीय संस्कारों में आस्था व्यक्त करना सराहनीय है। अन्य अनेक पात्र अपना विकास नहीं पा सके। मात्र तीन पात्रों सुरेखा, अभिनव और मनोहर पर ही सारा उपन्यास केंद्रित है।
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संस्कारों-संस्कृति से मुक्त भटकन
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कमलेश भारतीय
क्या जिंदगी का पहला प्यार अन्यत्र विवाह हो जाने पर मानसिक रोग में बदल जाता है? क्या वह सचमुच प्यार था भी? क्या उस प्यार की भेंट अपनी गृहस्थी चढ़ाई जा सकती है? बहुत सारे ऐसे सवाल महेशचंद्र शर्मा गौतम के उपन्यास ‘दिग्भ्रान्त मनÓ को पढऩे के बाद उठते हैं। जवाब भी इसी के अंत में भारतीय संस्कृति में छिपा मिलता है जब नायिका सुरेखा अपने पति के पास लौट जाने का फैसला करती है।
सुरेखा कॉलेज में पढ़ते समय मनोहर नामक सहपाठी युवक के प्रेमजाल में फंस कर होटल में अपने यौवन समर्पित कर देती है लेकिन मनोहर यह वादा नहीं करता कि वह सुरेखा से विवाह करेगा। मनोहर पढ़ाई के बाद अमेरिका चला जाता है और सुरेखा की शादी उसके माता-पिता अभिनव से कर देते हैं जो देखने में सुंदर, स्वभाव से सुशील और संस्कारी युवक है लेकिन जब-जब मिलन का अवसर आता है मनोहर की याद आती है और सुरेखा जब तक मनोहर को अनुभव करती है तब-तब मुग्ध रहती है लेकिन जैसे ही उसे ध्यान आता है कि यह तो अभिनव है तो उसका व्यवहार एकदम बदल जाता है। यहां तक कि बेटे राजू के जन्म को भी वह अभिनव से नहीं बल्कि मनोहर से जोड़ती है। बस यही मनोग्रंथी सारे उपन्यास में चलती है और सब कुछ अच्छा होते हुए और बराबर की नौकरी वाले पति को तलाक देने निकल पड़ती है सुरेखा। अंत में जब मनोहर वापस आकर होटल में मिलता है और वह उसकी अमेरिका की कहानी सुनती है तब अहसास होता है कि वह प्यार करने वाला नहीं बल्कि सिर्फ यौवन लूटने वाला है। अपनी गलती का अहसास कर वह गृहस्थी बचा लेती है।
बार-बार मनोहर की याद और ‘दिग्भ्रान्त मनÓ लिखकर जैसे अपने लेखन के उद्देश्य को स्पष्ट किया गया है और पाठक को सरल समीकरण का सवाल हल करके दिखाया गया है। इससे संकोच और संकेतात्मक लेखन किया जाता तो उपन्यास और भी सशक्त बनता। फिर भी इसकी रोचकता और भारतीय संस्कारों में आस्था व्यक्त करना सराहनीय है। अन्य अनेक पात्र अपना विकास नहीं पा सके। मात्र तीन पात्रों सुरेखा, अभिनव और मनोहर पर ही सारा उपन्यास केंद्रित है।
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