जाति और जनतंत्र

विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत के चुनाव को हमेशा उत्सुकता से देखा जाता रहा है, लेकिन इस बार मामला कुछ ज्यादा खास है। भारतीय चुनावों में अमेरिका, इंग्लैंड और विभिन्न यूरोपीय देशों की ज्यादा दिलचस्पी देखी गई है। लेकिन इस बार दक्षिण-पूर्वी एशिया और खाड़ी इलाके के कई देश इसमें काफी रुचि ले रहे हैं। उन्होंने भारत में नियुक्त अपने राजनयिकों को इस काम में लगाया है, जो अपनी कूटनीतिक सीमाओं में रहते हुए चुनावों के विभिन्न कारकों को समझने का प्रयास कर रहे हैं। जैसे, एक युवा राजनयिक को यह जिम्मेदारी दी गई कि वह यूपी के वोटिंग पैटर्न को समझे। सबकी बड़ी जिज्ञासा चुनावों में जाति की भूमिका को लेकर है। वे जानना चाहते हैं कि जाति जैसी पुरानी सामाजिक संरचना भारत जैसी तेजी से विकसित हो रही अर्थव्यवस्था और आधुनिक जीवन मूल्यों वाले समाज में आखिर किस तरह अपनी निर्णायक उपस्थिति बनाए हुए है। भारतीय समाज और इसके राजनीतिक ढांचे के बीच मौजूद विरोधाभास को डॉ. बी आर आंबेडकर ने स्वतंत्रता प्राप्ति के समय ही पहचान लिया था। संविधान के लोकार्पण से ठीक पहले दिए गए अपने वक्तव्य में उन्होंने साफ कहा था कि भारत ने राजनीतिक रूप से लोकतंत्र जरूर अपना लिया है। लेकिन समाज में लोकतंत्र आना आसान नहीं है क्योंकि सामाजिक पदानुक्रम (हायरार्की) आसानी से नहीं बदलने वाली। भारत की जमीन में जाति के पाये आखिर इतनी मजबूती से क्यों धंसे हुए हैं, इस बारे में समाजशास्त्री किसी अंतिम निष्कर्ष तक नहीं पहुंच पाए हैं। आजादी के बाद कई संगठनों और नेताओं ने जाति तोड़ो आंदोलन चलाया पर सतह के नीचे उसका कोई खास असर नहीं हुआ। उस समय माना जा रहा था कि आर्थिक विकास के साथ यह पहचान अपने आप कमजोर पड़ती जाएगी। नब्बे के दशक में आर्थिक उदारीकरण की नीति अपनाने के बाद से यह फर्क तो पड़ा कि सार्वजनिक जीवन में जातिगत भेदभाव तेजी से कम हो हुआ। छुआछूत जैसी अमानवीय प्रथा शहरों में पूरी तरह और गांवों में अंशत: समाप्त हो गई। सार्वजनिक दायरे में इसका कोई प्रभाव नहीं रह गया। लेकिन शादी-ब्याह में जाति की भूमिका ज्यों की त्यों बनी रही और चुनाव में इसका महत्व कम होने के बजाय बढ़ता गया। इसका कारण शायद यह है कि लगभग समान आर्थिक हैसियत वाले लोगों को अलग-अलग खेमों में गोलबंद करना कठिन होता है। ऐसे में जाति के रूप में पहले से मौजूद सुविधाजनक विभाजन का इस्तेमाल करके रातोंरात अपने वोटरों का अलग वर्ग खड़ा कर लेना पार्टियों को बहुत आसान लगता है। इस शॉर्टकट को बनाए रखने के लिए जातीय पहचान को नए सिरे से खाद-पानी मुहैया कराया जा रहा है। गनीमत है कि हमारे सिस्टम में हर किसी के लिए कुछ न कुछ उम्मीद बनी हुई है। इसके चलते बहुत सारे लोग जाति से हटकर वोट डालते हैं और जो लोग वोटिंग में जाति की अपील से प्रभावित होते हैं, वे भी बाकी समय इसको ज्यादा तवज्जो नहीं देते।

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