रेतघड़ीः बजट मखमल के थैले में आए या टाट के बोरे में, फर्क क्या पड़ता है

उम्मीद है कि दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के लिए जरूरी कोशिशें, जिनका दावा बजट भाषण में सीतारमण ने किया है, रंग लाएं. हम आने वाले साल में संभावित 7 फीसदी वाली विकास दर हासिल करें और फिर इसके लिए बजट टाट के बोरे में भी आए, उससे क्या फर्क़ पड़ेगा?

फोटो सौजन्यः आजतक

दोबारा सत्ता में आई मोदी सरकार ने  5 जुलाई को अपना पहला बजट पेश किया. वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने लोकसभा में क़रीब दो घंटे का बजट भाषण दिया. लेकिन ये आम बजट संसद में पेश होने से पहले ही चर्चा में आ गया. वजह- उस अटैची का नदारद रहना जिसे सालों से सभी सरकारों के वित्त मंत्री बजट के दिन दिखाते नज़र आते थे. टीवीवालों और फोटोग्राफरों के लिए उस चमड़े के भूरे ब्रीफकेस की बड़ी अहमयित होती थी. लेकिन मोदी सरकार खबरों में ऐसा चुटीलापन लाना जानती है और जाहिर है इस बार के बजट से से पहले बजट की थैली चर्चा में आई. 

सोशल मीडिया पर इस लाल थैले की काफी चर्चा हुई. थोड़ी ही देर में यह ट्विटर और गूगल सर्च में ट्रेंड करने लगा था. 

सीतारमण अटैची की बजाय बहीखाता जैसा दिखने वाले बजट दस्तावेज़ के साथ संसद के बाहर नज़र आईं. इस बहीखाते पर कलावा जैसा रिबन बंधा था और राष्ट्रीय प्रतीक बना हुआ था. ऐसा करने की वजह भी बताई गई.  मुख्य आर्थिक सलाहकार कृष्णमूर्ति सुब्रमण्यन ने कहा कि ये भारतीय परंपरा है और ये पश्चिमी विचारों की गुलामी से निकलने का प्रतीक है. ये बजट नहीं, बहीखाता है.

असल में, बजट को बैग में लाने की परंपरा कई सदियों पुरानी रही है और जाहिर है यह ब्रिटिश परंपरा रही है. सन 1733 में जब ब्रिटिश सरकार के प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री रॉबर्ट वॉलपोल बजट पेश करने आए थे और उनके हाथ में एक चमड़े का थैला था. इस थैले में ही बजट से जुड़े दस्तावेज थे. चमड़े के इस थैले को फ्रेंच भाषा में बुजेट कहा जाता था, उसी के आधार पर बाद में इस प्रक्रिया को बजट कहा जाने लगा.

लाल सूटकेस का इस्तेमाल पहली बार 1860 में ब्रिटिश बजट चीफ विलिमय ग्लैडस्टोन ने किया था. इसे बाद में ग्लैडस्टोन बॉक्स भी कहा गया और लगातार इसी बैग में ब्रिटेन का बजट पेश होता रहा. लंबे समय बाद इस बैग की स्थिति खराब होने के बाद 2010 में इसे आधिकारिक तौर पर रिटायर किया गया.

1947 में अंग्रेजों से तो भारत को आजादी मिल गई लेकिन बजट की परंपरा अंग्रेजों वाली ही रही. देश के पहले वित्त मंत्री आर.के. षणमुखम चेट्टी ने जब 26 जनवरी, 1947 को पहली बार बजट पेश किया तो वह भी एक चमड़े के थैले के साथ संसद पहुंचे. इसके बाद कई सालों तक इसी परंपरा के साथ बजट पेश होता रहा.

1958 में यह परंपरा बदली और पंडित जवाहर लाल नेहरू ने काले रंग के ब्रीफकेस में बजट पेश किया. इसके बाद जब 1991 में तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने बजट पेश किया तो ब्रीफकेस का रंग बदलकर लाल कर दिया गया. तब से ही लाल ब्रीफकेस में बजट पेश किया जाता रहा है. यहां तक कि 1 फरवरी 2019 का अंतरिम बजट भी पीयूष गोयल ने लाल ब्रीफकेस में ही पेश किया था.

मगर, इस बार मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल का पहला बजट लेकर आईं वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के हाथ में लाल ब्रीफकेस की जगह बजट के दस्तावेज लाल मखमली कपड़े में लिपटे नजर आए. ऐसा पहली बार हुआ है जब लेदर का बैग और ब्रीफकेस दोनों ही सरकार के बजट से गायब हो गए हैं. बजट की इस नई परंपरा को बही-खाता बताया जा रहा है.

यानी फ्रैंच भाषा के बुजेट शब्द के आधार पर लैदर बैग और सूटकेस में पेश किए जाने वाले आर्थिक खाके को बजट का जो नाम दिया गया उसे अब बही-खाता कहा जा रहा है.

बहरहाल, असल चीज तो वह थैला नहीं उस थैले में हिंदुस्तानी अवाम के लिए ढंके-छिपे सौगातों और करों की बात होती है. मेरी तरह आप में से कई लोग, बचपन में सरकारी स्कूलों में पढ़े होंगे. तब हमें बक्से या बैग की सहूलियत नहीं मिली थी. हम किताब-कॉपियां हाथ में लेकर स्कूल जाया करते थे. छात्र ही अपने क्रमांक के मुताबिक फर्श पर झाड़ू लगाते और टाट के बोरे पर बैठकर पढ़ते थे. पर अगर किताबों को हाथ की बजाए चमड़े के थैले या लाल मखमली थैले में ही ले जाया जाता तो किताबों में लिखी बातों पर क्या ही असर पड़ता.

उम्मीद है कि दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के लिए जरूरी कोशिशें, जिनका दावा बजट भाषण में सीतारमण ने किया है, रंग लाएं. हम आने वाले साल में संभावित 7 फीसदी वाली विकास दर हासिल करें और फिर इसके लिए बजट टाट के बोरे में भी आए, उससे क्या फर्क़ पड़ेगा?

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