लक्ष्मण जी की पत्नी उर्मिला और गोस्वामी तुलसीदास की पत्नी रत्नावली नेपथ्य में ही रही, लेकिन दिव्य रामकथा के प्रसंग में ये दोनों ही महान तपस्वनी थी। उर्मिला के वचनों के बाद लक्षण जी निश्चिंत भाव से प्रभु राम की सेवा में रह सके। रत्नावली के वचनों ने तुलसीदास को रामकथा का अभिनव भक्त और रचनाकार बना दिया। गोस्वामी तुलसीदास की महिमा शब्दों में व्यक्त नहीं कि जा सकती। विलक्षण भक्त और महान कवि के रूप में वह सदैव अमर रहेंगे। उनकी रचना भारत ही नहीं विश्व के पचासों देशों में सम्मान के साथ पढ़ी जाती है। उसपर आधारित रामलीला भी विश्व में प्रचलित है। यहां तक कि इंडोनेशिया जैसे मुस्लिम देशों में भी राम लीला व्यापक रूप से प्रचलित है।
ब्रिटिश काल में हजारों भरतीय गिरमिटिया मजदूर बनकर अनेक देशों में गए थे। वह अपने साथ रामचरित मानस की चोटी पुस्तक धरोहर के रूप में ले गए थे। इसी का प्रताप रहा जिससे आज भी वहां भारतीय संस्कृति व्यापक रूप से जीवंत है। लेकिन जब भी गोस्वामी तुलसीदास की चर्चा होगी, उनकी पत्नी रत्नावली का भी स्मरण किया जाएगा। यह रत्नावली ही थीं, जिनके एक वचन ने एक सामान्य व्यक्ति को तुलसी दास बना दिया। गोस्वामी जी ने स्वयं कैकेई के प्रसंग का विलक्षण उल्लेख किया है। प्रभु राम लंका विजय के बाद अयोध्या पँहुचे थे। वह सबसे पहले कैकेई के पास गए। उनके चरण स्पर्श किये, कहा कि माता यदि तुम न होती, तो राम को कौन जानता। वह तो केवल अयोध्या के एक राजा बन कर रह जाते। लेकिन कैकेई के वरदान मांगने के कारण प्रभु राम, माता सीता और लक्ष्मण चौदह वर्ष के लिए वनवास गए। यही तो प्रभु के अवतार का उद्देश्य था, जिसे कैकेई ने ही संभव बनाया।
यह भी सच है कि रत्नावली भी उर्मिला की भांति नेपथ्य में रही। डॉ सत्य प्रकाश शर्मा ने रत्नावली के ऊपर तपस्वनी नाम से उपन्यास लिखी। इसका विमोचन उत्तर प्रदेश विधानसभा अध्यक्ष और प्रख्यात लेखक हृदय नारायण दीक्षित ने लखनऊ में किया था। महाकवि निराला और विख्यात आलोचक राम विलास शर्मा दोनों ने रत्नावली का प्रसंग प्रभावी ढंग से उठाया है। दोनों ही हृदयनारायण दीक्षित ने क्षेत्र की विभूति है। ओसूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने भी रत्नावली का भव्यता और तेजश्वनी के रूप में चित्रण किया है। उन्होंने लिखा कि जब रत्नावली ने तुलसीदास को प्रभु के प्रति समर्पण की सलाह दी, तब वह कोई सामान्य महिला के रूप में नहीं थी। तब वह देविस्वरूपा लग रही थी। तब वह तपस्वनी थी। गोस्वामी जी ने रत्नावली के कथन का उल्लेख भी किया है–
लाज न लागत आपको, दौरे आयहु साथ।
धिक-धिक ऐसे प्रेम को कहाँ कहहुं मे नाथ।।
अस्थि चर्ममय देह मम,
तामे ऐसी प्रीती।
तैसी जो श्रीराम में, होत न तो भव भीती |
निराला जी ने भी उस दृश्य का भव्य चित्रण किया है-
बिखरी छूटी शफरी-अलकें,
निष्पात नयन-नीरज पलकें,
भावातुर पृथु उर की छलकें उपशमिता,निःसम्बल केवल ध्यान-मग्न,जागी योगिनी अरूप-लग्न–वह खड़ी शीर्ण प्रिय-भाव-मग्न निरुपमिता। – अचपल ध्वनि की चमकी चपला,बल की महिमा बोली अबला,जागी जल पर कमला, अमला–वह नहीं और कुछ-हाड़, चाम–जागा, जागा संस्कार प्रबल,रे गया काम तत्क्षण वह जल,देखा, वामा वह न थी, अनल-प्रतिमा वह; इस ओर ज्ञान, उस ओर ज्ञान,हो गया भस्म वह प्रथम भान-शारदा नील-वसना,,।
राम विलास शर्मा ने भी निराला के इस चित्रण का सुंदर विश्लेषण किया है। वह लिखते है कि रात्रि में एकांत हुआ उस समय तुलसीदास ने प्रिया का एक नवीन रूप देखा। समग्र भारत की सभ्यता को पुनर्जीवन देने के लिए ही जैसे विधाता ने उसे तुलसी की स्त्री बनाया था। आवेश में उसके केश खुल गए थे, आँखों से जैसे ज्वाला निकल रही थी, अपनी ही अग्नि में जैसे उसने अपने रूप को भस्म कर दिया था। तुलसी ने उसकी अरूपता देखी और सहम गए : ऐसा सौंदर्य उन्होंने पहले कभी नहीं देखा था। उसके शब्द उसकी अन्तरात्मा में पैठ गए और वह चलने को तैयार हो गए। रत्नावली को उस समय बोध हुआ कि यह बिछोह सदा के लिए होगा। उसके नेत्रों में आँसू भर आए, लेकिन तुलसीदास के लिए लौटना असम्भव था। वह उसे समझा-बुझाकर चल दिये। और यह विजय भारतीय संस्कृति की विजय थी। किस प्रकार तुलसी के संघर्ष का अंत होते ही अज्ञात न जाने कहाँ कहाँ हर्ष छा गया, उस सब उल्लास का वर्णन कविता में ही पढ़ते बनता है। संघर्ष का जैसा ओजपूर्ण चित्रण कवि ने किया है, वैसा ही उसका अंत भी हृदय में न समा सकने वाले भारत किंवा विश्वव्यापी उल्लास में किया है।
तुलसीदास के जन्म के दूसरे दिन ही उनकी माता का निधन हो गया था। इसे अनिष्ट समझ कर नन्हें तुलसी को से चुनियाँ नाम की एक दासी को सौंप दिया। जब तुलसी अर्थात रामबोला साढे पाँच वर्ष हुए तो उन्हें पालने वाली भी नहीं रही। नरहरि बाबा ने इस रामबोला का नाम तुलसीराम रखा था। नरहरि बाबा ने उन्हें दीक्षा दी। वही इनको अयोध्या ले आये। इस प्रकार तुलसीदास उस स्थान पर आ गए,जहां उन्हें अलौकिक कार्य करना था। लेकिन रत्नावली की दीक्षा अभी शेष थी। उसी के अनुरूप घटनाक्रम चला।
रत्नावली का त्याग तपस्या और बैराग अद्भुत था। हृदय नारायण दीक्षित कहते हैं कि रत्नावली इतिहास में खोया हुआ वह चरित्र है जिसे तुलसीदास को तुलसी बनने के लिए प्रेरित किया। उनके जीवन के विषय में भी सभी को जानकारी होनी चाहिए।
हृदय नारायण दीक्षित ऋग्वेद के प्रसंग को भी इससे जोड़ते है। इसके अनुसार रात्रि को उषा अर्थात अरुणोदय काल की बड़ी बहन बताया गया हैं। अंधकार के बाद प्रकाश आता है। इसी प्रकार जब ज्ञानबोध होता है तब व्यक्ति का जीवन भी आलोकित हो जाता है।