कश्मीर समस्या के समाधान की इच्छाशक्ति – डॉ दिलीप अग्निहोत्री

अमित शाह के नाम का असर कश्मीर घाटी में दिखाई दिया। दशकों बाद केंद्रीय गृह मंत्री के यहां आगमन पर बन्द का आह्वान नहीं किया गया। अलगाववादी हुर्रियत नेताओं के भी स्वर बदल गए है। इन्हें भी शायद अपनी शामत बढ़ने के आसार नजर आने लगे है। अनुच्छेद तीन सौ सत्तर और पैंतीस ए पर निर्णय की संभावना भी बढ़ी है। जनसंघ के समय से ही जम्मू कश्मीर को विशेष दर्जे का विरोध होता रहा है। श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने इसी के लिए अपना जीवन बलिदान किया था।
गृहमंत्री बनने के बाद पहली बार अमित शाह जम्मू कश्मीर गए थे। वहां से लौटने के बाद संसद में उन्होंने बयान दिया। यात्रा और बयान के आधार पर अमित शाह की रणनीति का अनुमान लगाया जा सकता है। वह सीमापार से संचालित आतंकवाद के प्रति जीरो टॉलरेंस की नीति को प्रभावी बना सकते है, अलगाववादी हुर्रियत नेताओं को भारत के एकता व अखंडता के अनुरूप आचरण का प्रमाण देना होगा। भारत में रहकर, यहां की सभी सुविधाएं लेकर पाकिस्तान की हिमायत के दिन लद चुके है। इन नेताओं की असलियत पहले ही सामने आ चुकी है। अब वह निजाम नहीं रहा जो नई दिल्ली में इनका खैरमकदम करता था। इसी के साथ जम्मू और लद्दाख क्षेत्र के साथ भी न्याय की उम्मीद है। अभी तक घाटी को ही आवश्यकता से अधिक वरीयता मिलती रही है। जम्मू व लद्दाख ने आजादी के बाद से ही उपेक्षा झेली है।
कश्मीर यात्रा के दौरान अमित शाह ने सुरक्षा, विकास और रोजगार पर विचार विमर्श किया।कहा कि यहां के युवाओं को तरक्की की राह पर ले जाने के लिए केंद्र सरकार आर्थिक सहायता प्रदान करेगी। घाटी में अलगाववादी और सीमा पार के आतंकी संगठनों के सहयोग से चल रहे कई एनजीओ पर भी शिकंजा कसा जाएगा।
प्रधानमंत्री के विकास पैकेज में युवाओं के लिए अलग से योजना बनेगी। युवाओं को फायदा पहुंचाने वाली योजनाओं में भ्रष्टाचार दूर किया जाएगा। कुटीर उद्योग को बढ़ावा देने के लिए भी राज्य स्तर पर कई योजनाएं शुरू होंगी। योजनाओं में युवाओं की भागेदारी को सुनिश्चित करने के लिए बैंक लोन और विशेष आर्थिक पैकेज भी दिया जाएगा। अमित शाह और राज्यपाल मलिक ने की राज्य में सुरक्षा व्यवस्था की समीक्षा की।
अमित शाह ने जम्मू कश्मीर में राष्ट्रपति शासन बढ़ाने का प्रस्ताव पेश किया। राज्य में छह महीने के लिए राष्ट्रपति शासन बढ़ाया जाएगा। उन्होंने कहा कि जम्मू-कश्मीर में अभी विधानसभा चुनाव कराने का माहौल नहीं है। अमित शाह ने घाटी में किस तरह केंद्र सरकार ने विकास कार्य करवाए हैं, उसका उल्लेख किया।
पहली बार ऐसा हुआ है जब राष्ट्रपति शासन शासन में आतंकियों के खिलाफ इतने कठोर कदम उठाये गए है। पिछले एक वर्ष में चालीस हजार सरपंचों के चुनाव शांति पूर्ण ढंग से हुए थे। सरकार सीमा के निकट रहने वालों के लिए बंकर बना रही है।
कांग्रेस ने राष्ट्रपति शासन का विरोध किया। इसके लिए शाह ने कांग्रेस को निशाने पर लिया। कहा कि कश्मीर के इतिहास का मुद्दा न उठाएं नहीं तो उसे ही बातों का जवाब देना पड़ेगा। उन्होंने पूंछा कि जमात ए इस्लामी पर पहले प्रतिबंध नहीं लगाया गया था। जम्मू कश्मीर एकमात्र ऐसा प्रदेश है जहां विधानसभा की अवधि छह साल है ।
जम्मू कश्मीर के संबन्ध में तीन तथ्यों ध्यान देना जरूरी है। पहला यह कि कश्मीर के भारत में विलय की कोई शर्त नहीं थी, दूसरा यह यह कि समस्या केवल घाटी तक सीमित है, तीसरा यह कि अनुच्छेद तीन सौ सत्तर और पैतीस ए संविधान के अस्थाई अनुच्छेद है। वास्तविकता यह है कि जम्मू कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। महाराज हरि सिंह ने संवैधानिक शासक के रूप में विलय पत्र पर हस्ताक्षर किए थे। यह वही प्रक्रिया थी जिसका अन्य देशी रियासतों ने पालन किया था। सभी रियासतों का समाधान हुआ। कश्मीर में स्थिति सामान्य नहीं हो सकी है। इसमें भी जम्मू और लद्दाख को परेशानी नहीं है। यहां के लोग पाकिस्तान को दुश्मन और भारत को मातृभूमि मानते है। कश्मीर घाटी के पांच जिले ही समस्याग्रस्त है। क्योंकि यहां अलगाववादियों को संरक्षण मिला है। यही कारण है कि यहां अनुच्छेद पैतीस ए पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई का भी विरोध हो रहा है। कांग्रेस , नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी भी आंदोलन को हवा दे रही है। तीसरा यह कि अनुच्छेद तीन सौ सत्तर और पैतीस आए संविधान के अस्थाई प्रावधान है। इनको स्थाई मान लेना असंवैधानिक विचार है। इसका मतलब है कि इस अस्थाई व्यवस्था पर चर्चा होनी चाहिए। जब कश्मीर का विलय संवैधानिक था , इसके लिए कोई शर्त नहीं थी , ऐसे में इस प्रदेश को विशेष दर्जा देने की कोई आवश्यकता नहीं थी। लेकिन इतिहास को वापस लौटाया नहीं जा सकता। लेकिन अब इस पर विचार विमर्श तो अवश्य होना चाहिए। भारत की संसद जम्मू-कश्मीर में रक्षा, विदेश मामले और संचार के अलावा कोई अन्य कानून नहीं बना सकती थी।उन्नीस सौ चौवन में एक अध्यादेश के जरिये केंद्र सरकार ने अनुच्छेद पैतीस ए का प्रावधान भी जारी किया। जिसके अनुसार जम्मू-कश्मीर से बाहर का कोई भी व्यक्ति न तो यहां नौकरी नहीं कर सकता है न ही भूमि, मकान आदि जैसी संपत्ति खरीद सकता है। बाहरी व्यक्ति राज्य सरकार द्वारा संचालित शिक्षण संस्थानों में पढ़ाई भी नहीं कर सकता है। इस नियम के कारण यदि जम्मू-कश्मीर की कोई लड़की दूसरे राज्य में विवाह करेगी तो उसकी जम्मू-कश्मीर की नागरिकता खत्म हो जाएगी। करीब चार वर्ष पहले सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करके अनुच्छेद पैतीस एको निरस्त करने की मांग की गई थी।
याचिका में कहा गया था कि इस अनुच्छेद के चलते यहां के करीब डेढ़ लाख शरणार्थी मूलअधिकारों से वंचित है। सत्तर वर्षों बाद भी इन्हें न्याय नहीं मिल सका है। इस पर भी चर्चा होनी चाहिए कि विशेष प्रावधान से आम जन को क्या लाभ मिल रहा है। आरोप तो यह भी है कि इससे केवल चुनिंदा लोग ही उठा रहे है। यही लोग आमजन को उकसाने का कार्य करते है।
यह सही है कि अनुच्छेद तीन सौ सत्तर में कई बदलाव हुए है। पहले पहले राज्यपाल की को सदर-ए-रियासत और मुख्यमंत्री कोप्रधानमंत्री कहा जाता था। उन्नीस सौ पैसठ में एकरूपता लाई गई। इसके एक वर्ष पहले आपात कालीन प्रावधान अनुच्छेद तीन सौ छप्पन तथा तीन सौ सत्तावन को जम्मू कश्मीर राज्य पर लागू कर दिया गया।
उन्नीस सौ तिरसठ में जवाहर लाल नेहरू ने कहा था कि यह अनुच्छेद घिसते-घिसते, घिस जाएगा। लेकिन इसका उल्टा हुआ है। हटाने की बात दूर ,विचार विमर्श पर ही धमकी सुनाई देने लगती है। भीमराव रामजी आंबेडकर ने शेख अब्दुल्ला को सही जबाब दिया था। कहा कि आप चाहते है भारत जम्मू-कश्मीर की रक्षा करे, उसका विकास करे। भारत के नागरिकों को भारत में जो भी अधिकार प्राप्त हैं वे इस राज्य के लोगों को भी मिलें और जम्मू-कश्मीर में भारतीयों को कोई अधिकार नहीं हो। आज वहाँ कांग्रेस ,पीडीपी, और नेशनल कांफ्रेंस भी अपने को घाटी तक सीमित रखना चाहते है। ये सब विचार पर भी धमकी की भाषा में जहर उगला रहे है। विशेष प्रावधान के बाबजूद यह प्रदेश पिछड़ा और अशांत ही बना रहा। जिस अनुच्छेद के लिए अलगाव की बात हो रही है, वह राज्य के विकास में बाधक है। इसके कारण बाहरी निवेश की अनुमति नहीं है। निवेशक यहां ढांचागत निर्माण करने नहीं आते और युवाओं को नौकरियां नहीं मिल रही है। कश्मीर भाजपा का बयान ठीक है कि नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस ने महाराजा को ही साजिश रचकर राज्य से बाहर कर दिया था। इतना ही नहीं उनके निधन तक वापस नहीं लौटने दिया था। विशेष प्रावधान अलगाव की भावना को बढ़ाते है। ऐसे लोग नहीं चाहते कि इस पर सुनवाई हो। क्योकि इससे अनेक तथ्य उभर कर सामने आ जयेगे। इस प्रदेश के आमजन को इसका खामियाजा उठाना पड़ा है। पर्यटन को बढाने के लिए भी यहां निवेश नहीं हो सका। ढांचागत सुविधाओ का घोर अभाव है। आमजन को यह सच्चाई समझनी चाहिए। राष्ट्रपति के प्रशासनिक आदेश से संविधान में बदलाव नहीं किया जा सकता। राष्ट्रपति के आदेश पैतीस ए को संविधान में स्थान मिला था। इसे संविधान का हिस्सा बनाने के लिए संशोधन प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया था। इसे लागू करने के लिए तीन सौ सत्तर के अंतर्गत प्राप्त शक्ति का सहारा लिया गय था। उन्नीस सौ चौवन में राष्ट्रपति के एक आदेश अनुच्छेद पैंतीस ए भारतीय संविधान में स्थापित किया गया था। अनुच्छेद के कारण गैर कश्मीरी व्यक्ति को कश्मीर में जमीन नहीं खरीद सकता, यहां का स्थायी निवासी नहीं हो सकता, यहां की कोई लड़की अन्य प्रदेश में शादी कर ले तो वह इन अधिकारों से वंचित हो जाती है। जबकि यह अनुच्छेद नियमतः संसद के द्वारा संविधान में स्थापित नहीं हुआ था। इस अनुच्छेद के कारण संविधान भारत के मूल अधिकार यहां लागू नहीं है। जम्मू-कश्मीर का संविधान उन्नीस सौ छप्पन में बना। बनाया गया था। इसके अनुसार चौदह मई उन्नीस सौ चौवन तक के निवासियों को यहां का नागरिक माना गया। दिल्ली समझौता सन उन्नीस सौ बावन में शेख अब्दुल्ला और जवाहर लाल नेहरू के बीच हुआ था। इसके अनुसार यहां के लोग भारत के भी नागरिक बन गए। इस समझौते के दो वर्ष बाद पैंतीस ए लागू किया गया। यह जम्मू कश्मीर की विधानसभा को राज्य के स्थायी नागरिक की परिभाषा तय करने का अधिकार देता है। इन तथ्यों पर विचार का समय आ गया है। सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपना विचार स्पष्ट रूप से रखा है।

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