महज एक भारी बरसात से आधुनिक विकास के आदर्श धराशायी हो जाते है.... | Soochana Sansar

महज एक भारी बरसात से आधुनिक विकास के आदर्श धराशायी हो जाते है….

@आशीष सागर दीक्षित,बाँदा।

बाँदा #बुंदेलखंड ✒️

  • किन्तु क्यों यह मनन करें

चारों तरफ बाढ़ की विभीषिका ने हासिये पर जूझते आम नागरिकों व किसानों को घरों से बरसाती पन्नियों की छत्रछाया मे धकेल दिया है। यह बरसात की दैवीय आपदा कंक्रीट के विकास को बेनकाब करती है। वर्षाकाल मे नदियों का कुदरती कनेक्टिविटी का चैनल सबको हलकान करता है तो कभी सूखे से परेशान भी।
यह बाढ़ आपदा पूरे देश मे खाशकर प्राकृतिक जलस्रोतों से सम्रद्ध रहे राज्यों, प्रान्तों और जनपदों मे वहां की प्राचीन वर्षा जल संरक्षण पद्धति के खात्मे का संकेतक है। यह बाढ़ की बीमारी हमारे यहां के चंदेल कालीन तालाबों, गांव के छोटे-बड़े जोहड़, पोखर,तालाबों, खेतों की मेडो और मेड पर पेड़ों के नाम पर लगातार होती शोशेबाजी व सरकारी माध्यम से वर्षा जल संरक्षण, तालाबों, नदियों के पुनुरुद्धार अर्थात नवजीवन देने के करोड़ो रुपयों वाले बजट से तरबतर करतबों एवं सरकार की कठपुतली बनकर व्यक्ति विशेष /गैर सरकारी दिखावटी पब्लिक स्टंट को भी बेपर्दा करती है।


सनद रहे कि बुंदेलखंड से बिहार तक और प्रयागराज की माता गंगा (कुछ माह पूर्व जिन पर महाकुंभ के नाम पर हजारों करोड़ रुपया सिर्फ व्यवस्था बजट / मीडिया प्रबंधन मे खर्च हुआ था।) से हमीरपुर-बाँदा की केन,यमुना चंद्रावल नदियों को रिवाइवल (गहरीकरण, सुंदरीकरण, नदियों के किनारे आडंबर युक्त पौधरोपण, उनके कैचमेंट क्षेत्र मे खनन रोकने अर्थात बाढ़ का डूब क्षेत्र कम करने की कागजी योजनाओं) पर भी यक्ष प्रश्नचिन्ह खड़ा करती है। क्या यह सारे नीति-नियंता इनका मुकम्मल चिंतन करतें है ? या जो सरकार कहती है उसमें ही सुरताल रहता है ? इन सतही माध्यमों से केंद्रीय अथवा राज्य सरकार किसी का सम्मान तो कर सकती है मसलन अपने आईएएस अधिकारियों का भी !!! लेकिन अफसरों के साथ मौजूद होकर मिट्टी भरे मनरेगा के तसलों पर फोटोशूट कराने के हास्यास्पद उदाहरण को झूठा नही बतला सकती है। गौरतलब है कि दिल्ली मे वर्तमान या पूर्व रही केंद्र सरकार की बनिस्बत लक्जरी दफ्तरों मे बैठें ब्यूरोक्रेटस के बस का नही है कि वे वार्षिक दैवीय बाढ़ या सूखा आपदा को रोक सकें। क्योंकि उनकी नजर मे नदियां बड़े-छोटे बांधों के निर्माण करने का साधन है। उनके आसपास उपलब्ध प्राकृतिक जंगलों को रिवर फ्रंट बनाने या वन्यजीवों के अभ्यारण को नष्ट करते हुए केन-बेतवा जैसे बड़े बांधों का क्रियान्वयन करना है। वहीं भूमि संरक्षण, सिंचाई विभाग के जरिये बनते सैकड़ो खेत तालाबों और मेड़बंदी, बन्धियों का बजट गर्क करना है।

क्या हमारे देश की दिल्ली सरकारें या राज्य सरकार बिना लाग-लपेट पारदर्शिता अपनी ही सरकार मे बनें “अमृत सरोवर” औऱ चंद्रावल जैसी छोटी बरसाती नदियों का ज़मीनी अनुश्रवण या बजट खर्च मूल्यांकन करा सकती है ? क्या अब तक वर्षों मे भौतिक विकास के माडल से भोलेनाथ की काशी/बनारस अथवा उत्तराखंड के केदारनाथ की आपदा रुकी है ? क्या विकास और अंधाधुंध पर्यटन की दौड़ मे प्रतिभागी हिमाचल प्रदेश जिसके अनियमित विकास पर माननीय उच्चतम न्यायालय तक को टिप्पणी करनी पड़ी उसका नेचुरल डिजास्टर रोक पाती है ?

क्या देश की सारी नदियों की अस्मिता बचाने को उनके गर्भगृह से कैचमेंट क्षेत्रफल तक और दिल्ली मे भूमिगत सैकड़ो तालाबों से नवाबी नगर लखनऊ के बड़े तालाब (वहां का गोमती नगर हाईकोर्ट भवन भी तालाब का हिस्सा है),गोमती नदी के अतिक्रमण से बुंदेलखंड की केन, यमुना,बेतवा, उर्मिल,धसान, मंदाकनी,पहुंज और चंबल तक का कछार,कैचमेंट एरिया मानव हस्तक्षेप से सदा के लिए मुक्त कर सकती है ? लिखने का उद्देश्य इतना ही है कि बाढ़ या सूखा आपदा को सालाना बजट खर्च करने का जरिया बनवाने की अपेक्षा हमारी निर्वाचित राज्य / केंद्र सरकार चाहे वर्तमान हो या तत्कालीन सबसे पहले प्राथमिकता से समूचे देश की सारी नैसर्गिक / प्राकृतिक वाटर बॉडीज, जलराशियों,जलस्रोतों को आधुनिक विकास माडल और मानवीय कब्जों से सर्वोच्च न्यायालय व उच्चन्यायालय इलाहाबाद के न्यायिक आदेशानुसार मुक्त कराने का कानून सम्मत समाधान करने का कष्ट करें। यदि ऐसा यथास्थिति यथासंभव मुनासिब हुआ तो यकीनन मानव जनित बाढ़ आपदा,मालवा से विदर्भ, बुंदेलखंड तक का सुखाड़, अतिवर्षा और भारी बाढ़ आपदा का माकूल निदान करने मे सक्षम होकर जनता के सर्वांगीण/ सर्वहारा/समग्र इकाईयों के उत्थान का अभीष्ठ लक्ष्य अवश्य ही प्राप्त कर सकती है। जिससे किसानों,खेतों, जंगलों, तालाबों और नदियों का सुंदर भारत निर्माण हो सकेगा। उल्लेखनीय है मैंने यहां देशभर के दफन होते दरिया,खत्म होती जल राशियों, ग्रामीण-शहरी तालाबों और सालभर सिसकती मृत्युशैया से ग्रसित मौजूदा बाढ़ से त्रस्त जल स्रोतों का उदाहरण इसलिए नही दिया है ताकि आप सब स्वयं अपने गांवो,कस्बों, शहरों, प्रान्तों और राज्यों मे इनका भविष्यगामी ज़मीनी परीक्षण/निरीक्षण/अध्ययन कर सकतें है। उन तालाबों को खोजिए जो गांव के किसी बुजुर्ग की याद मे जल संरक्षण के बरक्स बने थे। उन बरसाती नदियों को ढूंढिए जहां अपने बचपन को आपने अठखेलियाँ करते जिया होगा। क्या आज उन्हें जीवटता से वास्तविक रूप मे बचाने वाले और मिटाने वाले लोकतांत्रिक व्यवस्था आदर्शों के प्रतिमान लिए दिखतें है ? वे आज कितने अलग-थलग खड़े है सोचियेगा।

(पोस्ट की सारी तस्वीर प्रयागराज की गंगा नदी व बाँदा से प्रकाशित खबर की है।)

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