मध्य प्रदेश की सियासत एक बार फिर उपचुनाव की कसौटी पर उतरेंगी | Politics in MP

 मध्य प्रदेश की सियासत एक बार फिर उपचुनाव की कसौटी पर उतरने वाली है। इस बार तीन विधानसभा क्षेत्रों और लोकसभा की एक सीट के लिए उपचुनाव होने वाले हैं। हालांकि अभी चुनाव कार्यक्रम की घोषणा नहीं हुई है, लेकिन रजनीतिक दल तैयारियों में जुट गए हैं। क्षेत्रवार सामाजिक समीकरणों को सहेजने के साथ प्रत्याशी चयन की कवायद शुरू की जा चुकी है। यद्यपि इन उपचुनावों के परिणाम से न तो भाजपा की केंद्र सरकार पर कोई असर पड़ने वाला है और न राज्य सरकार पर, लेकिन हैं ये महत्वपूर्ण। दरअसल वर्ष 2023 में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए माहौल बनाने की ध्वनि इन उपचुनावों से निकलेगी।

The politics of Madhya Pradesh will once again come to the test of by  elections jagran special

खुद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भी स्वीकार कर चुके हैं कि सरकार पर असर न डालने वाले उपचुनाव ज्यादा तनाव देने वाले होते हैं। इसलिए कार्यकर्ता इन उपचुनावों को गंभीरता से लें और जीत सुनिश्चित करने के लिए जुट जाएं। कांग्रेस भी इन उपचुनावों को अपने लिए एक अवसर के रूप में देख रही है।भाजपा विधायक जुगल किशोर बागरी के निधन से खाली हुई विंध्य की रैगांव सीट अनुसूचित जाति बाहुल्य है। इस सीट पर कब्जा बरकरार रखना आसान नहीं है। इसी तरह बुंदेलखंड की पृथ्वीपुर सीट का अपना अलग मिजाज है। यहां 2018 के चुनाव में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के उम्मीदवारों ने जबरदस्त टक्कर दी थी और क्रमश: दूसरे और तीसरे स्थान पर रहे थे। भाजपा का प्रत्याशी चौथे नंबर पर रहा था। कांग्रेस के बृजेंद्र सिंह राठौर ने जीत हासिल की थी। राठौर के निधन के बाद रिक्त हुई इस सीट पर फिर घमासान होने की उम्मीद है। भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान के निधन से रिक्त पूर्वी निमाड़ की खंडवा लोकसभा सीट का उपचुनाव भी कम दिलचस्प नहीं होगा। कांग्रेस की ओर से पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अरुण यादव की दावेदारी लगभग तय मानी जा रही है। पार्टी की ओर से घोषणा होने के पूर्व ही वह प्रचार में जुट गए हैं।

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हालांकि यादव को पिछले चुनाव में यहां से हार का सामना करना पड़ा था। इस सीट पर भाजपा किसे उम्मीदवार बनाएगी यह अभी तय नहीं है। हालांकि प्रत्याशी तय करने के लिए वह मशक्कत कर रही है। उसे उम्मीद है कि कोरोना काल के दौरान पैदा हुई विषम स्थितियों के कारण शायद उसके हिस्से कोई करिश्मा हो जाए। हालांकि यह सच्चाई है कि 2018 में सरकार बनाने के बाद अंतर्कलह के कारण विपक्ष में आ बैठी कांग्रेस को भी इन उपचुनावों के परिणाम से कोई बड़ा फायदा नहीं होने वाला है, लेकिन वह यह जानती है कि इन उपचुनावों में यदि जीत मिलती है तो इससे भविष्य की राजनीति के लिए माहौल बनाने में उसे मदद मिल सकती है। इसीलिए वह पूरे दमखम के साथ मैदान में उतरने की तैयारी कर रही है।कांग्रेस विधायक कलावती भूरिया के निधन से रिक्त हुई जोबट सीट आदिवासी बहुल है। 2018 के विधानसभा चुनाव में यहां के आदिवासी भाजपा से नाराज थे |

जिसके कारण त्रिकोणीय मुकाबले में कांग्रेस ने जीत हासिल कर ली थी। इस वर्ग का विश्वास जीतना भाजपा के लिए बड़ी चुनौती है। इसको स्वीकार करते हुए भाजपा आदिवासियों के बीच पकड़ मजबूत करने के लिए काम शुरू कर चुकी है। विश्वास जीतने के लिए ही भाजपा ने संगठन में वरिष्ठ पदों पर आदिवासी वर्ग से कई नियुक्तियां की हैं। दूसरी ओर कांग्रेस इसे अपनी परंपरागत सीट मानकर चल रही है, लेकिन पार्टी के स्थानीय कार्यकर्ताओं ने हाल ही में बाहरी और बागी प्रत्याशी को नामंजूर करने का एलान करके अपना रुख साफ कर दिया है।भाजपा से जुड़े लोग मानते हैं कि 27 सीटों पर हुए उपचुनाव की तरह ही इस बार भी करो या मरो की तर्ज पर पार्टी लड़ेगी और जीतेगी। वे कहते हैं कि ज्योतिरादित्य सिंधिया के भाजपा में शामिल होने के बाद उनके समर्थक कांग्रेस विधायकों के इस्तीफे के बाद 27 सीटों पर हुए उपचुनाव में पार्टी ने जिस तरह सर्वाधिक सीटें जीतकर अपनी सरकार को सुरक्षित कर लिया उसी तरह इस बार भी पार्टी विजय पताका फहराएगी। हालांकि कुछ माह पूर्व विधानसभा की दमोह सीट पर हुए उपचुनाव में भाजपा को बड़ी पराजय मिली थी। इस हार का संदेश यही है कि लोकसभा की एक और विधानसभा की तीन सीटों के उपचुनाव कांग्रेस से अधिक भाजपा के लिए चुनौती हैं।

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