अजीत द्विवेदी | मानसून की पहली बारिश में दिल्ली के इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाईअड्डे के टर्मिनल एक की पार्किंग एरिया में कैनोपी यानी छत गिर गई। इस हादसे में आठ गाड़ियां दब गईं। इनमें से एक गाड़ी टैक्सी थी, जिसमें ड्राइवर बैठा हुआ था और छत गिरने से मौके पर ही उसकी मौत हो गई। दिल्ली हवाईअड्डे के साथ ही मध्य प्रदेश के जबलपुर और गुजरात के राजकोट हवाईअड्डे पर भी बिल्कुल इसी तरह की घटनाएं हुईं। जिस समय एक के बाद एक ये तीन घटनाएं हुईं उसी समय बिहार में पुल गिरने की खबरें आ रही थीं। एक पखवाड़े में कोई एक दर्जन पुल गिर गए। ज्यादातर पुल पुराने थे लेकिन कम से कम दो पुल ऐसे थे, जो अभी बन ही रहे थे। यानी निर्माणाधीन पुल गिर गए।
उसी समय या उससे थोड़ा पहले यह खबर आई थी कि मुंबई के जिस अटल सेतु का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनाव की घोषणा से पहले उद्घाटन किया था उसमें दरारें आ गई हैं। हालांकि बाद में कहा गया कि दरार पुल पर नहीं, बल्कि एप्रोच रोड पर आई है। यह ऐसी सफाई थी, जिसमें पूरी व्यवस्था को बचाने का प्रयास साफ दिख रहा था। इससे कुछ ही दिन पहले पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग में कंचनजंघा एक्सप्रेस की मालगाड़ी से टक्कर हो गई, जिसमें पांच लोग मारे गए। यह बिल्कुल उसी तरह का हादसा था, जैसा पिछले साल बालासोर में हुआ था, जिसमें करीब तीन सौ लोगों की जान गई थी। दोनों दुर्घटनाओं के समय रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव ही थे।
ऐसी दुर्घटनाओं के समय मीडिया में यह बताने का प्रचलन रहा है कि कैसे एक ट्रेन दुर्घटना हुई थी तो तत्कालीन रेल मंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने इस्तीफा दे दिया था। यह भी बताया जाता है कि नीतीश कुमार ने भी एक हादसे के बाद रेल मंत्री पद से इस्तीफा दिया था। लेकिन अब तो नीतीश कुमार इस्तीफा नहीं देते! उनके राज्य में पिछले एक पखवाड़े में एक दर्जन पुल गिरे हैं। दो निर्माणाधीन पुल गिरे हैं। कुछ समय पहले 17 सौ करोड़ रुपए की लागत से गंगा नदी पर बन रहा पुल गिर गया था। उससे थोड़े दिन पहले गंडक नदी पर बना 264 करोड़ रुपए का पुल गिर गया था। उनके राज्य में शराबबंदी है और सैकड़ों लोग नकली शराब पीकर मर गए।
लेकिन ऐसी किसी घटना के बाद नीतीश कुमार का इस्तीफा नहीं हुआ और न उन्होंने आगे आकर जवाबदेही स्वीकार की। यही हाल हवाईअड्डों की छत गिरने में है, यही हाल रेल दुर्घटनाओं में है और यही हाल बारिश में सड़कों के धंसने, पहाड़ टूटने, जंगलों में आग लगने जैसी घटनाओं में भी है। किसी भी हादसे में शासकीय या प्रशासकीय जवाबदेही नहीं तय की जा रही है। ऐसा लग रहा है, जैसे देश की शासन व्यवस्था जवाबदेही के सिद्धांत से ऊपर उठ गई है। हम सामूहिक उत्तरदायित्व के दौर से आगे किसी और दौर में रह रहे हैं!
ऐसा लग रहा है, जैसे प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों के साथ साथ केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के मंत्री और वरिष्ठ अधिकारी हर तरह की जवाबदेही से मुक्त हो गए हैं। वे अपने किए गए किसी भी काम के प्रति उतरदायी नहीं हैं। यह भी लग रहा है कि देश की आम जनता की जान की कीमत कुछ भी नहीं रह गई है। वह हवाईअड्डे की पार्किंग में छत गिर जाने से मर जाता है या सत्संग की भीड़ में कुचल कर मर जाता है और किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता है। आम इंसान सिर्फ एक भीड़ का हिस्सा बन कर गया है, जिसका इस्तेमाल चुनाव के समय वोट लेने और उसके बाद पांच साल तक दर्जनों किस्म के टैक्स वसूलने के लिए किया जाता है। इसके बाद न तो कोई उसकी जिंदगी की लिए जवाबदेह है और न उसकी मौत के लिए उत्तरदायी है! यह दुखद स्थिति है और किसी भी सभ्य और जीवंत लोकतंत्र के माथे पर गहरा काला धब्बा है।
आखिर हवाईअड्डे की छत गिरने का हादसा हो या पुल गिरने की घटना हो या ट्रेन दुर्घटना हो, ये सारी घटनाएं तो प्रशासकीय विफलता की वजह से ही हुईं! फिर इसके लिए किसी को जिम्मेदार क्यों नहीं ठहराया जाना चाहिए? क्या इसके लिए बिल्कुल शीर्ष स्तर से लोगों का इस्तीफा नहीं होना चाहिए? इन घटनाओं का यह कह कर बचाव किया जा रहा है कि दिल्ली हवाईअड्डे की जो छत गिरी वह 2009 में बनी थी, जब कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार थी या बिहार में जो पुल गिरे हैं वो 40 साल पुराने थे या ट्रेन दुर्घटना स्टेशन मास्टर या किसी अन्य रेलवे कर्मचारी की गलती से हुई। यह भी कहा जा रहा है कि इतना बड़ा देश है और इतना विशाल बुनियादी ढांचा है तो कहीं न कहीं दुर्घटना होती रहेगी। अगर इसके लिए मंत्रियों और शीर्ष अधिकारियों के इस्तीफे होने लगें तो फिर कोई नहीं बचेगा।
यह सब बहुत सतही और असंवेदनशील दलीलें हैं, जिनके दम पर शासन और व्यवस्था का बचाव किया जा रहा है। असल में ये सारे तर्क इस ओर इशारा कर रहे हैं कि ऐसी घटनाएं तो होती रहती हैं। इस तर्क का विस्तार यह भी हो सकता है कि अगर घटनाएं नहीं होंगी, पुल नहीं गिरेंगे, सड़कें नहीं टूटेंगी, टर्मिनल की छत नहीं गिरेगी तो नया निर्माण कैसे होगा और अगर नया निर्माण नहीं हुआ तो ठेके में कमीशन का खेल कैसे होगा और अगर कमीशन का खेल नहीं हुआ तो राजनीति कैसे होगी? असल में यह एक दुष्चक्र बन गया है, जिसमें सबकी मिलीभगत है। यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि बुनियादी ढांचे का निर्माण आम जनता के हित के लिए कम और राजनीतिक व आर्थिक फायदे के लिए ज्यादा किया जाता है। सरकारी ठेकों में जम कर कमीशन का खेल होता है और ऊपर से ठेकेदार के ऊपर काम जल्दी पूरा करने का दबाव होता है, ताकि राजनीतिक लाभ लिया जा सके। काम की गुणवत्ता पर किसी का ध्यान नहीं रहता है और न काम पूरा होने के बाद उसके रखरखाव का कोई सांस्थायिक ढांचा बना है।
अगर सड़कों, पुलों और दूसरे बुनियादी ढांचों के निर्माण की गुणवत्ता सुनिश्चित की जाए, उनकी नियमित जांच की सांस्थायिक व्यवस्था बने और किसी भी गड़बड़ी के लिए सरकार के शीर्ष स्तर पर जवाबदेही तय हो तो इस तरह की घटनाओं को रोकना मुश्किल नहीं होगा। आखिर अंग्रेजों के जमाने में बने सैकड़ों रेल और सड़क पुल आज भी सुरक्षित हैं, जबकि आजाद भारत में बना बुनियादी ढांचा पहले दिन से खतरे में होता है। तभी यह सोचना तो चाहिए कि आखिर ऐसा क्यों होता है और इसे रोकने का क्या उपाय हो?