बच्चों की खुशी से अधिक सामाजिक प्रतिष्ठा को महत्व देना चिंताजनकः हाईकोर्ट

प्रयागराज इलाहाबाद हाईकोर्ट ने आम जनमानस की गुलाम मानसिकता पर गहरी चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि यह समाज का काला चेहरा दिखाता है, जहां माता-पिता अपने बच्चों के प्रेम विवाह को अस्वीकार करते हुए पारिवारिक तथा सामाजिक दबाव में झूठी प्राथमिकी दर्ज कराते हैं।

यह एक परेशान करने वाली प्रवृत्ति है कि आजादी के 75 साल बीत जाने के बाद भी हम सामाजिक पिछड़ेपन से उबर नहीं पा रहे हैं। क्त टिप्पणी न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार की एकलपीठ ने सागर सविता के खिलाफ आईपीसी की 363, 366 और पाक्सो एक्ट की धारा 7ध्8 के तहत दर्ज मामले की पूरी कार्यवाही रद्द करने की मांग वाली याचिका को स्वीकार करते हुए की। याची के अधिवक्ता ने कोर्ट को बताया कि याची विपक्षी के साथ विवाह करने के बाद खुशी-खुशी पति-पत्नी के रूप में रह रहा था, लेकिन लड़की के पिता इस शादी से खुश नहीं थे, इसलिए उन्होंने याची के खिलाफ उपरोक्त धाराओं के अंतर्गत पुलिस स्टेशन नदीगांव, जिला जालौन में प्राथमिकी दर्ज कराई। जांच के बाद आरोप पत्र दाखिल किया गया और और याची के खिलाफ समन भी जारी हुआ।

इस मामले में कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले का हवाला देते हुए कहा कि सामाजिक प्रतिरोध को संबंधों के निर्वहन में सबसे बड़ी बाधा माना जा सकता है। बच्चों की खुशी में ही माता-पिता की खुशी होती है।

जब दोनों पक्ष सहमति से पति-पत्नी के रूप में खुशी से रह रहे हैं तो उनकी शादी को परिवार द्वारा भी अनुमोदन मिलना हीं चाहिए। ऐसे में अगर परिवार बच्चों की खुशी से ज्यादा सामाजिक प्रतिष्ठा को महत्व देता है तो यह वास्तव में चिंता का विषय है और इससे बेवजह की मुकदमेबाजी को बढ़ावा मिलता है।

वैसे भी उस व्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान करना चाहिए, जिसने वयस्कता की प आयु प्राप्त कर ली हो। अंत में कोर्ट क ने यह माना कि याची पर मुकदमा च चलाने से किसी उद्देश्य की प्राप्ति नहीं होगी। अतः मामले की पूरी कार्यवाही को रद्द करने का निर्देश दिया।

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