गर्म-दौर की तपिश…

| आदित्य नारायण लेखक |

यह एक हकीकत है कि जलवायु परिवर्तन का दंश पूरे विश्व के लिये संकट पैदा कर रहा है। जिसके प्रभाव पूरी दुनिया में सूखे, बाढ़ और लू की तपिश के रूप में सामने आ रहे हैं। इस विकट स्थिति में वृद्धि की आशंकाओं के बीच विश्व मौसम विज्ञान संगठन यानी डब्ल्यूएमओ के जलवायु परिवर्तन के पूर्वानुमान डराने वाले हैं। संगठन के अनुसार आने वाले पांच वर्ष अब तक के सबसे गर्म वर्ष साबित होने वाले हैं। जिसके लिये दुनिया के तमाम देशों को तैयार रहना होगा। जाहिर है इससे पूरी दुनिया को भीषण गर्मी, विनाशकारी बाढ़ और सूखे जैसी मौसमी घटनाओं के परिणामों के लिये तैयार रहना होगा। खासकर विकासशील देशों के लिये यह बड़ी चुनौती होगी क्योंकि उन्हें अपनी बड़ी आबादी को इस संकट से सुरक्षा प्रदान करनी होगी। इससे कृषि व अन्य रोजगार के साधन ही बाधित नहीं होंगे बल्कि कई देशों की खाद्य सुरक्षा शृंखला के खतरे में पड़ जाने की आशंका बलवती हुई है। निस्संदेह, घातक मौसमी घटनाओं के परिणामों से बचने के लिये विकसित व विकासशील देशों को कमर कसनी होगी। दरअसल, पूर्व औद्योगिक युग के स्तर पर 1.5 डिग्री सेल्सियस की खतरनाक वृद्धि से आगे तापमान बढ़ने से अल नीनो प्रभाव के चलते तमाम विनाशकारी परिणाम सामने आ सकते हैं। दरअसल, मानव की अंतहीन लिप्सा के चलते पैदा हुई ग्रीन हाउस गैसों द्वारा उत्सर्जित गर्मी इस संकट में इजाफा ही करने वाली है।

जिससे दुनिया के पर्यावरण के व्यापक विनाश की आशंका पैदा हो रही है। मनुष्य द्वारा प्रकृति के साथ किये गये खिलवाड़ का खमियाजा आने वाली पीढ़ियां भुगतने को अभिशप्त हैं। लेकिन अपने संसाधनों का भरपूर उपयोग करके समृद्धि पाने वाले विकसित देश अपने दायित्वों से मुंह मोड़ रहे हैं। दुनिया में पर्यावरण संरक्षण से जुड़े तमाम संगठनों की दशकों से पर्यावरण संरक्षण की मांग को अनदेखा करके विकसित देश गरीब मुल्कों की मदद के लिये आगे नहीं आ रहे हैं। जिसके चलते हाल-फिलहाल में इस संकट का तार्किक समाधान निकलता नजर नहीं आ रहा है। हालांकि, विश्व मौसम विज्ञान संगठन की यह टिप्पणी कुछ राहत देती है कि यह वैश्विक तापमान वृद्धि अस्थायी है। लेकिन संगठन इसके बावजूद चेतावनी देता है कि पूरी दुनिया में ग्लोबल वार्मिंग एक हकीकत बन चुकी है। मगर यह भी एक हकीकत है कि जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में हुए सम्मेलनों में किये गये वायदों का सम्मान करने के लिये विकसित राष्ट्र अपने दायित्वों से विमुख बने हुए हैं। निश्चित रूप से जब तक विकसित देश तापमान नियंत्रण की दिशा में ईमानदार पहल नहीं करते पूरी दुनिया एक भयावह आपदा की दिशा में अग्रसर ही रहेगी। आज के हालात में यह जरूरी हो गया है कि जीवाश्म ईंधन के विकल्प तुरंत तलाशे जायें। अब चाहे हरित ऊर्जा का क्रियान्वयन युद्ध स्तर पर करने की जरूरत हो या फिर गरीब मुल्कों में संवेदनशील क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की सुरक्षा और पुनर्वास की तैयारी हो, बिना अमीर मुल्कों की आर्थिक मदद के स्थिति में कोई सुधार संभव नहीं होगा।

यह न्यायसंगत होगा कि पिछली शताब्दी में विकसित देशों की औद्योगीकरण की प्रक्रियाओं के दौरान कार्बन उत्सर्जन के कारण विकासशील देशों को हुए नुकसान की भरपाई विकसित देश ईमानदारी से करें। उल्लेखनीय है कि गरीब मुल्कों के लिये अरबों डॉलर के जिस जलवायु वित्त का वायदा अमीर मुल्कों ने किया था, उसे निभाने का अब वक्त आ चुका है। इस धरती को जीने लायक बनाने के लिये यह एक अपरिहार्य शर्त है। आज पूरी दुनिया में उन लोगों को सुरक्षा कवच प्रदान करने की जरूरत है जिनको मौसम का चरम नुकसान पहुंचा सकता है। विकसित देशों को अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन ईमानदारी से करना होगा। अब चाहे अमेरिका हो या यूरोपीय देश, सभी मौसम की तल्खी के घातक परिणामों से दो-चार हैं। लेकिन गरीब मुल्कों का संकट बड़ा है। उनके पास लोगों के पुनर्वास व संरक्षण के लिये पर्याप्त पूंजी का भी अभाव है। यह समय धनी पश्चिमी देशों से जलवायु-न्याय छीनने का वक्त है।

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