आज न तो व्यक्ति को, न राज्य को, न सोशल मीडिया को निजीपन की कोई चिन्ता है और न इस सिलसिले में कोई ऐसी मर्यादा रह गयी है जिसका अतिक्रमण गलत माना जाता हो।
निजी की सार्वजनिकता
टेक्नालाजी ने यह अभूतपूर्व सुविधा सभी को, जो उसका इस्तेमाल करते हैं, सहज ही उपलब्ध करा दी है कि आप जो चाहें वह मोबाइल आदि पर सीधे दिखा सकते हैं – अपने रहने की जगह, काम करने की मेज़, आस-पास के पेड़-पौधे, अपनी पुस्तकें, ताज़ा बनायी सब्जियां, काफ़ी या चाय के प्याले, पालतू कुत्ते या बिल्लियां, अपना रसोईघर आदि. सैकड़ों लोग रोज़ लगातार अपने को फ़ेसबुक, सोशल मीडिया आदि पर इस तरह दिखा रहे हैं. निजता और सार्वजनिकता के बीच जो दूरी थी वह इस तरह हर रोज़ कम हो रही है. इसके पीछे शायद यह भोला विश्वास है कि हम में से हरेक के पास ऐसा कुछ है, निजी और अनदेखा, जिसे दिखाना ज़रूरी है, एक तरह की साझेदारी विकसित करने के लिए. यह भी कि दूसरों की भी, यह सब देखने में, दिलचस्पी है या हो सकती है.
इस अनोखी सुविधा का उपयोग आत्मविज्ञापन के लिए भी खूब हो रहा है. नयी रचना, नयी पुस्तक, नया चित्र, दूसरों की अपने किये-धरे पर की गयी प्रशंसा या अनुमोदन आदि सभी इन दिनों देखने-पढऩे में आ रहे हैं. कुछ तो इसकी वजह यह भी है कि चूंकि कोराना विपदा के कारण बहुत सारी सामाजिक गतिविधियां या सामुदायिकता की अभिव्यक्तियां स्थगित हैं, यह नया विकल्प आपदधर्म की तरह हाथ आ गया है. इसका कुछ चापलूसी, कुछ पर-निन्दा, कुछ आत्मप्रक्षेपण, कुछ लोकप्रियता आदि के लिए उपयोग हो रहा है. सवाल यह उठता है कि अपने निजत्व को इस तरह लोकदृश्य बना देना उचित है या नहीं. क्या अभिव्यक्ति में यह हड़बड़ी अन्तत: निजता की हानि करती है?
सार्वजनिक हस्तियों, ख़ासकर फि़ल्मी अभिनेताओं और खिलाडिय़ों आदि के निजीपन का लगातार मनमाना अतिक्रमण हमारे कई टीवी चैनल, बिना किसी संकोच के कर रहे हैं. वे तकनालजी का उपयोग यह बताने के लिए कर रहे हैं कि पिछली रात कौन कितना सो पाया और सुबह किसी ने पुलिस हिरासत या जेल में क्या नाश्ता खाया. राज्य जहां इस टेक्नालाजी का उपयोग लगातार नागरिकों पर अपनी निगरानी बढ़ाने के लिए कर रहा है वहीं नागरिक निजता की कोई परवाह किये बिना एक-दूसरे पर निगरानी कर रहे हैं. एक रचना कर उसे तुरन्त फ़ेसबुक या तथाकथित अपने पेज पर डालकर तुरन्त वाहवाही लूटी जा रही है. दृश्य यह बन गया है कि न तो व्यक्ति को, न राज्य को, न सोशल मीडिया को निजीपन की, निजत्व की कोई चिन्ता है और न कोई ऐसी मर्यादा इस सिलसिले में रह गयी है जिसका अतिक्रमण करना आपत्तिजनक माना जाता हो. लक्ष्मण स्वयं अपनी रेखा मिटाने के लिए बहुत तत्पर है! यही नहीं ऐसे लोग स्वयं एक आत्मरचित मिथक अपने बारे में बना और प्रचारित-प्रसारित कर रहे हैं. निजता का बिना संकोच अतिक्रमण अब ‘नया सामान्यÓ हो गया है. क्या अब भी साहित्य और कलाएं इस अतिक्रमण को प्रतिरोध दे पायेंगी या दे रही हैं? जो निजता राजनीति, धर्म, सोशल मीडिया, नागरिकता तक में नहीं बच रही वह साहित्य और कलाओं में बच पायेगी? कैसे और कहां?
शास्त्रीय निरन्तरता
हमारे यहां परम्परा पर पर्याप्त चर्चा होती रही है और साहित्य में जातीय स्मृति पर भी विचार हुआ है. पर शायद हमने इस पर कम ध्यान दिया है कि परम्परा की सर्जनात्मक उपस्थिति अक्सर शास्त्रीयता के रूप में विन्यस्त होती है. पश्चिम में जहां जातीय स्मृति को ध्वस्त या धूमिल करने के बहुत हिंसक यहां तक कि नरसंहारक उपाय व्यापक हुए, वहां साहित्य और कलाओं में उसे उद्बुद्ध और पुनर्नवा करने का प्रयत्न, एक तरह के मानवीय और सर्जनात्मक प्रतिरोध की तरह होता रहा है. हमने सर्जनात्मक रूप से तो यह किया है पर, आलोचनात्मक रूप से प्राय: और पर्याप्त नहीं.
इस सिलसिले में, उदाहरण के तौर पर, हमें प्रसाद, निराला, अज्ञेय, हजारीप्रसाद द्विवेदी, नागार्जुन और त्रिलोचन के सर्जनात्मक काम को देखना चाहिये. प्रसाद ने अपने नाटकों और महाकाव्य ‘कामायनीÓ में शास्त्रीय तत्व और विवेक का, मानवीय और ऐतिहासिक स्थिति के लिए पुनराविष्कार किया है. निराला के यहां ऐसा ही आविष्कार ‘राम की शक्ति पूजाÓ और ‘तुलसीदासÓ जैसी कविताओं में स्पष्ट और प्रखर है. अज्ञेय ने भले किसी विदेशी लोककथा का सहारा लेकर ‘असाध्य वीणाÓ लिखी हो पर उसकी संरचना में शास्त्रीय तत्व बहुत सक्रिय है. हजारीप्रसाद द्विवेदी के सभी उपन्यास ‘बाण भट्ट की आत्मकथाÓ से लेकर ‘अनामदास का पोथाÓ तक, शास्त्रीय निरन्तरता को आधुनिकता के साथ संवाद में रत करने के लिए लिखे लगते हैं. नागार्जुन की राजनैतिक कविताओं पर ध्यान इतना केन्द्रित रहा है कि उन्होंने शास्त्र और लोक के बीच जो सहज आवाजाही अपनी कविता में विन्यस्त की वह लगभग अलक्षित चली गयी. त्रिलोचन का जो काव्यसंयम है वह शास्त्रीय संयम से ही तुलनीय है. उनके यहां किसी तरह का अतिरेक नहीं बल्कि सजग काव्य-विवेक है जो फिर शास्त्रीय निरन्तरता का साक्ष्य है.
हिन्दी में अब हम ऐसे मुक़ाम पर पहुंच गये हैं जहां स्मृतिहीनता सृजन की लगभग अनिवार्य शर्त ही बन गयी है. आज की ज़्यादातर कविता में तो स्वयं हिन्दी की आधुनिक कविता की कोई याद, अनुगूंज नहीं बची है. हम कविता में पुकारते हैं, चीखते हैं, हंसते-खिलखिलाते हैं, विकल होते हैं, विलाप करते हैं पर अपने पुरखों या उनके किये-धरे को, उनके साहस और विवेक को, उनकी विडम्बनाओं और जिजीविषा को, उनके मानवीय साक्ष्य को याद नहीं करते. ऐसे समय में जब भुलाने की एक सुनियोजित मुहीम, पूरी दुष्टता और अपार साधनों के साथ, चल रही है, कविता याद कर, याद दिलाकर, याद को बचाकर ही सच्चा और गहरा प्रतिरोध कर सकती है. हो सकता है कि आज के बहुत सारे युवा कवियों की प्रतिरोध करने में कोई दिलचस्पी न हो. उनसे, सफलता की अन्धी दौड़ में, सार्थकता के लिए, कुछ ठिठकर शास्त्रीय निरंतरता पर सोचने की उम्मीद लगाना मुझ बूढ़े का अरण्यरोदन भर रह गया है.
असावधान लोग
एक शास्त्रीय गायिका ने फ़ोन पर बताया कि इस समय जब कोरोना प्रकोप लगातार बढ़-फैल रहा है, त्योहारों और पूजा-अर्चना में ज्?य़ादातर लोग न तो भौतिक दूरी रख रहे हैं और न ही मास्क पहनने की सावधानी बरत रहे हैं. गायिका मध्य प्रदेश के एक छोटे शहर में रहती हैं और उनके घर के पास से ऊपर टेकड़ी पर बने देवी के मन्दिर में इन दिनों लोग हज़ारों की संख्या में दर्शन के लिए जा रहे हैं. प्रशासन प्रकोप के दौरान जो सावधानियां सामान्य नागरिक द्वारा बरती जानी अनिवार्य हैं, उनको लागू करने के लिए कुछ नहीं कर रहा है. वह लाचार है या असजग यह कहना मुश्किल है. और भी लोग बताते रहते हैं कि इन दिनों लॉकडाउन में काफ़ी ढील दिये जाने से बहुत से लोग, आम तौर पर, घूमने या सौदा-सुलूफ़ लाने या और किसी काम से कहीं जाते हुए मास्क नहीं पहन रहे हैं. यह बहुत ही चिन्ताजनक बात है और नागरिकों का अपने सहज कर्तव्य से विरत होना है जिसका लोक स्वास्थ्य के क्षेत्र में भयानक परिणाम होना अवश्यम्भावी है.
सही है कि प्रकोप में राज्य को जितना कर सकना चाहिये था उतना वह नहीं कर पाया. पर राज्य के कुछ भी कारगर करने की एक सीमा होती है. वह, बहुत हद तक अपनी जि़म्मेदारी नहीं निभा सकता अगर उसे नागरिकों का सहज सहयोग न मिले. जो लोग बहुत आशान्वित होकर कुछ महीनों पहले प्रधानमंत्री के आह्वान पर दिया जलाकर, या थाली पीटकर महामारी भगाने का अनुष्ठान कर रहे थे, अब उन्हीं में से अधिकांश, फिर प्रधानमंत्री के आह्वान पर, सावधानियां बरतने के बजाय लापरवाही से पेश आ रहे हैं.
दुर्भाग्य से किसी भी व्यक्ति का बाहर जाने पर सावधानी न बरतना न सिर्फ उसके लिए ख़तरा हो सकता है, बल्कि वह निश्चय ही दूसरों के लिए ख़तरा बन जाता है. हममें से हरेक की जि़म्मेदारी न सिफऱ् अपने को बल्कि दूसरों को भी बचाने की है. इस समय जऱा सी लापरवाही जी का जंजाल हो सकती है. वेक्सीन अभी दूर है, प्रकोप लगातार बढ़ता जा रहा है और उससे राहत मिलने के अभी कोई आसार नहीं है. भारत में 80 लाख से ऊपर लोग संक्रमित हो चुके हैं और हम सबसे संक्रमित देशों की सूची में लगभग सबसे ऊपर पहुंच रहे हैं. राजनीति ऐसे समय में पूरी निमर्मता और नीचता से पेश आ रही है. कम से कम नागरिकता को तो इस टेढ़े समय में एक सावधान-सजग बिरादरी बनकर आत्मरक्षा और पररक्षा दोनों में सक्रिय होना चाहिये. प्रकोप ने हमें यह साफ़ सिखा दिया कि हम न राजभरोसे रह-बच सकते हैं, न रामभरोसे. अगर यह सबक नागरिकता नहीं सीखती तो उसके लोकतांत्रिक अन्त:करण के संक्षिप्त और विजडि़त होने और उसके भयावह दुष्परिणाम भुगतने के लिए हमें तैयार रहना चाहिये.
००