कांग्रेस नेताओं की बैठक : प्रासंगिकता का प्रश्न


कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं की शनिवार को सोनिया गांधी के साथ हुई बैठक की जरूरत लंबे समय से महसूस की जा रही थी। जब से पार्टी के 23 बड़े नेताओं ने उन्हें पत्र लिखकर कांग्रेस के अंदरूनी हालात पर असंतोष जताया था, तभी से इस कथित असंतुष्ट गुट को लेकर पार्टी में एक तरह की असहजता देखी जा रही थी। बैठक में हुई खुली बातचीत से रिश्तों में जमी बर्फ के पिघलने की शुरुआत जरूर हुई और यह पार्टी के अंदर माहौल बदलने में कुछ मदद भी कर सकता है। लेकिन जिस गंभीर समस्या से कांग्रेस जूझ रही है उससे उबरने के लिए उसे अभी बहुत कुछ करना होगा। शनिवार को हुई बैठक में जिन गलतफहमियों के दूर होने की बात की जा रही है, वे गलतफहमियां आखिर हैं क्या और क्यों पैदा हुईं?
पुरानी और नई पीढ़ी के विवाद के पीछे भी वही मूल समस्या है जिसे राहुल गांधी ने लोकसभा चुनावों में हुई हार के बाद उठाया था। उनका कहना था कि मैं अकेला बीजेपी से लोहा लेता रहा और पार्टी के सभी पुराने नेता अपने अपने बेटों को आगे बढ़ाने में लगे रहे। चाहे पी चिदंबरम हों या अशोक गहलोत या फिर कमलनाथ, सबकी प्राथमिकता अपने बेटों को स्थापित करने की थी। असम में भी पार्टी के सामने मूल दुविधा यही थी। तरुण गोगोई का पुत्रप्रेम तत्कालीन कांग्रेस नेता हेमंत बिस्वसर्मा की राह में आड़े आ रही थी। उन्होंने राहुल गांधी के सामने अपनी समस्या रखी, पर राहुल के पास कुछ कहने को नहीं था। नतीजा यह कि बिस्वसर्मा बीजेपी में चले गए और उसके लिए नॉर्थईस्ट में संभावनाओं के द्वार खोल दिए। हर राज्य में ऐसे नेता नए उभरते नेतृत्व की राह रोक कर खड़े रहेंगे तो कोई अध्यक्ष पार्टी कार्यकर्ताओं को आखिर किस तरह से भरोसे में लेगा?
इस मूल सवाल का जवाब कांग्रेस को तलाशना है अध्यक्ष चाहे राहुल गांधी बनें या कोई और। दूसरा इसी से जुड़ा मसला है कांग्रेस के अंदर की कार्य संस्कृति का। चुनाव जीतना और सत्ता में पहुंचना तो अलग सवाल है, अगर कांग्रेस एक प्रभावी और कारगर पार्टी बनना चाहती है तो भी उसे खुद को एक ऐसे संगठन में तब्दील करना होगा जिसमें समाज की मौजूदा हलचलों के लिए और समकालीन आंदोलनों के लिए पूरी गुंजाइश रहे। चाहे शाहीन बाग हो या मौजूदा किसान आंदोलन, अगर सत्तारूढ़ पार्टी से जुड़े तत्व उसे देशविरोधी साबित करने में लगे हैं तो देश की विपक्षी पार्टी में इतना माद्दा होना चाहिए कि अपनी बांहें खोल कर इन आंदोलनों को अपने में समाहित करे और यह साबित करे कि देश का दायरा सत्ता की इच्छा से छोटा-बड़ा नहीं हो जाता। इन दो मोर्चों पर कांग्रेस अपनी उलझन दूर कर सकी तो कम से कम इस दौर में अप्रासंगिक होते जाने के खतरे से बच जाएगी।

Like us share us

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *